सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के पंचगुरु

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के पंचगुरु

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध द्वारा लिखित ‘श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज’ द्वितीय खण्ड ‘प्रेमप्रवास’ में उन्होंने अपने पंचगुरुओं का वर्णन किया है, जो संक्षेप में इस प्रकार है।

श्रीगुरुदत्त

परमेश्वर यानी स्वयंसिद्ध एवं स्वयंप्रकाशी चेतनतत्त्व। श्रद्धावान इसे ही ‘दत्तगुरु’ संबोधित करते हैं।

सद्गुरु श्री अनिरुद्ध के पंचगुरुओं में से प्रथम गुरु यानी ‘दत्तगुरु’; अर्थात् सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के आनन्दमय कोश के स्वामी एवं उनके करविता (करानेवाले) गुरु। श्रीसाईसच्चरित की इस ओवी का सन्दर्भ देकर सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ने दत्तगुरु के महत्त्व को अधोरेखित किया है।

दत्तासारिखें पूज्य दैवत । असतां सहज मार्गी  तिष्ठत ।

अभागी जो दर्शनवर्जित । मी काय पावत तयासी ॥

श्रीसाईनाथजी के ये शब्द ही सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के जीवनकार्य की दिशा तथा श्रीगुरुदत्त के चरणों के प्रति होनेवाली उनकी (सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध की) अविचल निष्ठा है।

श्रीगायत्रीमाता

‘गायत्री’ यही उन महन्मंगल आदिमाता का प्रथम स्वरूप है, आद्यस्वरूप है। गायत्री स्वरूप यह सदैव तरल स्तर पर से ही कार्यरत रहता है।

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध की द्वितीय गुरु यानी उनके विज्ञानमय कोश की स्वामिनी श्रीगायत्रीमाता, यही उनकी वात्सल्यगुरु हैं।

परब्रह्म की ‘मैं परमेश्वर हूँ’ यह आत्मसंवेदना ही परमेश्वरी, आदिमाता हैं। इन्हीं को वेदों ने ‘गायत्रीमाता’ यह नामाभिधान दिया है।

इस गायत्रीस्वरूप की कृपा से ही मनुष्य को किसी भी ज्ञान-विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और उपयोगी भी सिद्ध होती रहती है।

श्रीराम

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के तृतीय गुरु अर्थात् प्रभु श्रीराम ही उनके मनोमय कोश के स्वामी एवं कर्ता गुरु हैं और रामचरित्र ही मर्यादापालन का प्रात्यक्षिकहै।

श्रीराम ही ‘मर्यादापुरुषोत्तम’ नाम से जाने जाते हैं।

महाप्राण श्रीहनुमंत

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के चतुर्थ गुरु अर्थात् श्रीहनुमंत ही उनके ‘रक्षकगुरु’ अर्थात् अद्वितीय मर्यादारक्षक हैं।

सद्गुरु अनिरुद्ध के प्राणमय कोश के स्वामी और उनके रक्षक गुरु श्रीहनुमानजी अपने आप को प्रभु रामचन्द्रजी का दास कहलाने में ही धन्यता मानते हैं और श्रीअनिरुद्ध उन हनुमानजी का दासानुदास कहलवाने में ही अपने जीवनकार्य की इतिकर्तव्यता मानते हैं।

‘मर्यादित से अमर्यादित अनंतत्व’, ‘भक्त से ईश्‍वरत्व’ का प्रवास करनेवाले श्रीहनुमंत ही एकमात्र हैं।

श्रीसाईसमर्थ

सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के पंचम गुरु साईसमर्थ ही सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के अन्नमय कोश के स्वामी और उनके दिग्दर्शक गुरु हैं।                                                                                      

साईबाबा का जीवनचरित्र होनेवाले और साथ ही, भक्तों के जीवन में विकास तथा आनंद का मार्ग दिग्दर्शित करनेवाले श्रीसाईसच्चरित इस ग्रंथ पर आधारित सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध के प्रवचन यानी श्रीअनिरुद्ध के, अपने दिग्दर्शकगुरु के प्रति एवं श्रद्धावानों के प्रति होनेवाले प्रेम का आविष्कार ही है।

श्रीसाईसच्चरित की कई ओवियों में से अभिव्यक्त होनेवाली श्रीसाई की विनम्रता, लीनता, शालीनता और उच्च निरभिमानता इनका संदर्भ देकर सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध ‘श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज’ द्वितीय खण्ड ‘प्रेमप्रवास’ (पृष्ठ क्र. ३६५) में कहते हैं, ‘मेरे अन्नमय कोश के स्वामी और मेरे दिग्दर्शक गुरु साईसमर्थ यदि इस तरह अपने भाव प्रकट करते हैं, तो फिर ‘मैं कोई श्रेष्ठ हूँ’ यह कहने का नाममात्र का भी अधिकार मुझे नहीं है, ऐसा मैं निश्‍चित रूप से मानता हूँ।’