देहु-आलंदी रसयात्रा

शिर्डी और अक्कलकोट की दो रसयात्राओं की भक्तिरस से भरी यादें अपने में हृदय में लिए हुए श्रद्धावानों को प्रतीक्षा थी अगली रसयात्रा की! सन १९९८ में सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के साथ श्रद्धावानों ने देहू-आलंदी की तीसरी रसयात्रा की। श्रीसाई समर्थ विज्ञान प्रबोधिनी नामक संस्था के सौजन्त से इस रसयात्रा का आयोजन किया गया था। १ सितम्बर १९९८ की रात को सभी श्रद्धावानों ने रसयात्रा के लिये प्रस्थान किया और दूसरे दिन प्रभात समय सभी आलंदी पहुंचे. हर रसयात्रा को श्रद्धावानों द्वारा बढती संख्या में प्रतिसाद मिल रहा था।

संतश्रेष्ठ ज्ञानेश्वरजी की आलंदी में पहुचने पर हर श्रद्धावान को ज्ञानेश्वरजी की प्रेमरसमय, करुणापूर्ण वाणी, ज्ञानेश्वरजी के ऋणों का स्मरण हो रहा था। इस रसयात्रा की शुरुआत संत ज्ञानदेव द्वारा विरचित हरीपाठ से हुई।

‘देवाचिये द्वारी उभा क्षणभरी, तेणे मुक्ती चारी साधियेल्या,
हरि मुखे म्हणा हरि मुखे म्हणा, पुण्याची गणना कोण करी’

(भगवान के दर पर जो ठहरे पलभर के लिए, वही चारों मुक्तियां पाता है। मुख से हरी नाम जपो, पुण्य की गिनती न करना।)

सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के साथ हरिपाठ गाते हुए सबका हृदय भक्ती से ओतप्रोत भर गया था। हरिपाठ के बाद सभी बडे उत्साह से ‘जय हरि विठ्ठल, श्रीहरी विठ्ठल…. विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल विठ्ठल’ इस नामगजर में शामिल हुए। तत्पश्चात ‘विठूचा गजर हरिनामाचा झेंडा रोविला, वाळवंटी चंद्रभागेच्या काठी डाव मांडीला’ इस गजर में सभी भक्तीरंग में रंग गये थे।

सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने सबको रसयात्रा का महत्व समझाया और उनके मार्गदर्शन अनुसार पवित्र ग्रंथों का जुलूस निकाला गया। श्री विठ्ठलजी की भक्ति में जीवन समर्पित करनेवाले संतों द्वारा विरचित ग्रंथ श्रद्धावानों के लिये गुरूस्थान पर हैं। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी खुद अपने लेखन, प्रवचन में कई संत वचनों का उल्लेख करते हैं।

इन संतविरचित ग्रंथों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये ज्ञानेश्वरी, तुकाराम गाथा, साईसच्चरित, एकनाथी भागवत जैसे पवित्र ग्रंथों जुलूस निकाला गया। ग्रंथ जुलूस में शामिल हुए भक्त ‘जय जय रामकृष्ण हरि’, ‘ज्ञानोबा माऊली तुकाराम….’ जैसे गजर गाते हुए पालकी के साथ साथ चल रहे थे। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी की उपस्थिति के कारण सभी भक्त बहुत ही खुश थे। इस जुलूस को पंढरपूर के वारी का स्वरूप प्राप्त हुआ था।

शाम को सभी को गीली चिकनी मिट्टी दी गयी। उस मिट्टी से श्रद्धावानों ने ज्ञानेश्वरजी की पादुकाएं बनाईं। तब श्रीसाईसच्चरीतकार हेमाडपंतजी (श्री गोविंद रघुनाथ दाभोल्कर) के पोते श्री आप्पासाहब दाभोलकरजी ने श्रीअनिरुद्धजी की आज्ञानुसार मिट्टी का शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की. प्रत्येक श्रद्धावान द्वारा बनाई गई श्रीज्ञानेश्वरजी पादुकाएं अर्चन द्रव्य से पूजन करके वे पादुकाएं शिवलिंग पर अर्पण कीं। तब सभी ने ज्ञानेश्वरजी के गायत्री मंत्र का जाप किया। रात को सत्संग किया गया। यह सत्संग सारी रात रंगा रहा।

रसयात्रा के दूसरे दिन ज्ञानेश्वरजी की समाधी, अजानवृक्ष और हैबतबाबा की समाधी का दर्शन किया गया। तब आलंदी संस्थान द्वारा सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी का स्तकार किया गया। तब उन्होंने बहुत ही हार्दिक यादें ताजा कीं। इसके अलावा उन्होंने संत निवृत्तीनाथ, संत ज्ञानदेव, संत सोपानदेव, और संत मुक्ताबाई द्वारा जगत्कल्याण हेतु सहे हुए कष्ट और उनकी भगवद्भक्ती की कथाएँ सुनाईं।

शाम को ‘अमृतमंथन’ उपासना के बाद सभी श्रद्धावान इंद्रायणी नदी के तट पर इकठ्ठा हुए। श्रीअनिरुद्धजी ने स्वयं इंद्रायणी माता का पूजन करके दीपदान किया और उसके बाद सभी भक्तों ने प्रज्वलीत दीप इंद्रायणी के प्रवाह में अर्पण किये।

रसयात्रा के तीसरे दिन सुबह को सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराज की महत्ता बताई और फिर सभी देहू के लिये रवाना हो गए। देहू पहुंचकर सभी श्राद्धावानों ने संतश्रेष्ठ तुकाराम महाराज मंदिर, वैकुंठगमन वृक्ष, आदि स्थानों के दर्शन किये।

उसके बाद हुए कार्यक्रम में सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने रसयात्रा का महत्व संक्षिप्त में समझाया। उन्होंने कहा कि, ‘रसयात्रा शुरु हो गई। हर साल अलग अलग स्थान पर। मगर हमारे जीवन में रसयात्रा निरंतर नये सिरे से शुरू होती है और चलती ही रहती है।

तत्पश्चात भक्ति का महत्व समझाते हुए सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने ‘ज्ञान-विज्ञानकारिणी भक्ति’ ऐसा अनोखा शब्दप्रयोग किया। ज्ञान और विज्ञान का एक होना आवश्यक है अर्थात, हमें जो अच्छा लागता है वह और जो सत्य है वह दोनों का एकसाथ होना जरुरी है। वास्तव और इच्छाओं के द्वंद्व से भय निर्माण होता है; ऐसा ना हो इसलिये ज्ञान और विज्ञान एकसाथ होना चाहिए और यह केवल भक्ती से ही संभव होता है।’ इन शब्दों में सद्गुरू ने ‘ज्ञान-विज्ञानकारिणी भक्ति’ का अर्थ समझाया।

इस रसयात्रा से संबंध जोडते हुए उन्होंने कहा कि, ‘ऐसे भक्तिरस की अखंड गंगोत्री थे ज्ञानदेवजी! संत ज्ञानेश्वरजी ने समाज में भक्तिप्रेम की ज्योत जलाई। कर्मकांड में फसे हुए समाज को एक हलकासा झटका देते हुए उन्होंने हरएक के अंतरमन में जिन पवित्र स्पन्दनों का निर्माण किया, वह आज भी इस यात्रा से हमें मिले ही हैं और हम सब यह स्पंदन हमारे साथ लेकर जाएंगे।’ सद्गुरु अनिरुद्धजी ने इस रसायात्रा के माध्यम से भक्तों को उनके जीवन में उपलब्ध सकारात्मक परिवर्तन का अहसास दिलाया।

इसके बाद परमपूज्य सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने संत मुक्ताबाई के ‘मुंगी उडाली आकाशी’ इस अभंग का निरुपण करते हुए बताया कि, ’चींटी यानी हमारी श्रद्धा, जब यह श्रद्धा हमारे अंतरंग में पूर्णता प्राप्त कर लेती है तब वह सामर्थ्यशाली बन जाती है।’

अंत में उन्होंने अपने पसंदीदा काव्य की दो पंक्तियां कहीं –

‘देणाऱ्याने देत जावे, घेणाऱ्याने घेत जावे, घेणाऱ्याने एक दिवस देणाऱ्याचे हात घ्यावे.’

इस बात को समझाते हुए उन्होंने कहा कि, ‘दान देनेवाले की तरह दान लेनेवाले के हाथ भी ‘दानी’ हो जाने चाहियें।’

इस तरह तीन दिन भक्तीरस लूटकर सारे भक्तगणों के सकारात्मक जीवनयात्रा के नए अध्याय का आरम्भ हुआ।