श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव

 Shri Varada Chandika Prasannotsav

       ‘‘श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’, बहुत ही अनूठा और दुर्लभ उत्सव था। जो दुर्गमा हैं वही दुर्गा।  इस चण्डिका को प्राप्त करना और न प्राप्त करना दुर्गम होने से ही उन्हें दुर्गा नामाभिदान प्राप्त हुआ। एक तरफ ऋषिमुनि दुर्गा को प्राप्त करने के लिए महतप्रयास करते हैं, कठोर मार्ग से दुर्गा को प्राप्त कर लेते हैं, तो दूसरी तरफ राक्षस उतने ही कठिन प्रयास करके इस दुर्गा को न प्राप्त करने का निश्चय पूरा करते हैं। ऋषि और राक्षस ऐसे दक्षिण ध्रुव और उत्तर ध्रुव के बीच में जो है, वही मानव है। ऐसी दुर्गा की हमें आराधना करनी है, वह भी ऐसे अनूठे उत्सव से कि जिसके लिए अनेक योगों को एकसाथ होना होता हैं, अनेक संकल्प पहले पूरे होने होते हैं।’ सद्‍गुरु श्री अनिरुद्ध (बापू) ने श्रद्धावानों को श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव की पहली बार विस्तृत जानकारी देते हुए यह बात कही थी।

          ’१९९६ से ही चार रसयात्रा, भावयात्रा, व्यंकटेश जप, जगन्नाथ उत्सव, गायत्री उत्सव, अवधूत चिंतन उत्सव, धर्मचक्र की स्थापना, गुरुक्षेत्रम में महिषासूरमर्दिनी की स्थापना भी उसी दौरान की गई। वज्रमंडल पीठपूजन और उसके पश्चात त्रिविक्रम की स्थापना इन सभी स्तरों को पार करते हुए हम यहां तक आ पहुंचे हैं। इस अत्यंत सुन्दर, आल्हाददाई, संपूर्ण जीवन को सुनहरा बनानेवाली, अखिल जीवन को मधुर करने के लिए जो बल लगता है वह बल प्राप्त करने के लिए मनुष्य को मिलनेवाला सर्वोच्च अवसर अर्थात यह प्रसन्नोत्सव’, ऐसा बापूजी ने कहा था।

          यह ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्स’ ८ मई से १७ मई २०११ के दौरान संपन्न हुआ।

इस उत्सव के प्रति सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी द्वारा बताया हुआ महत्व:

१) शुभंकरा केंद्रों की संख्या एवं क्षमता बढ़ाना।

२) निष्क्रिय केंद्रों को शुभ मार्ग पर सक्रिय करना।

३) कलि के प्रभाव में जो केंद्र आ चुके हैं उन्हें कलि के प्रभाव से मुक्त करना अर्थात अपनी प्रगति के आड़े आनेवाले सभी आंतरिक एवं बाहरी अड़चने, विरोध एवं शत्रुओं का विनाश करना।

मानव के प्राणमय देह में कुल १०८ शक्तिकेंद्र होते हैं। इनमें से ४५ शुभंकरा केंद्र, ५२ निष्क्रिय केंद्र और ११ कलि के प्रभावतले आ चुके केंद्र होते हैं। निष्क्रिय शक्तिकेंद्रों को शुभ मार्ग पर सक्रिय करना, कलि के प्रभावतले जो शक्तिकेंद्र हैं उन्हें कलि के प्रभाव से मुक्त करना यह कार्य ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ द्वारा श्रद्धावानों के जीवन में घटित हुआ।

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          ’मातृवात्सल्यविंदानम् ग्रंथ में बयान किया गया आदिमाता का आख्यान तथा उसके द्वारा मिलनेवाला ज्ञान, भक्ति, आत्मविश्‍वास, कवच, सुरक्षा अर्थात महिषासुरमर्दिनी का नौंवां अवतार मंत्रमालिनी।  इसी अवतार का फलस्वरूप अर्थात श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव.’

 

          इस श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव से कुछ महीने पहले प्रत्येक इच्छुक श्रद्धावान को श्रीकंठकूप पाषाण अपने घर ले जाकर श्रीदेवीपूजनम्‌ करने का अवसर प्राप्त हुआ था। इस कंठकूप पाषाण का पूजन प्रथम श्रीहरिगुरुग्राम में सद्‍गुरु श्रीअनिरूद्धजी ने किया था। तत्पश्चात हजारों श्रद्धावानों ने अपने घर पर श्रीकंठकूप पाषाण पूजन प्रेम व उत्साह से किया। है इसी भाव एवं विश्वास के साथ समस्त श्रद्धावानों ने यह पूजन किया। यह उत्सव की शुरुआत थी।

          ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ बहुत ही अनोखा था। इस उत्सव में तीन प्रमुख देवियां थीं। इनमें  महिषासुरमर्दिनी अर्थात अशुभंकरनाशिनी का अखिल कामेश्वरीस्वरुप, महाकाली का कालनियंत्रकस्वरूप और महासरस्वती का आरोग्यभवानीस्वरुप था। मॉंचण्डिका का यह तीनों रूप प्रमुख देवियों के रूप में उत्सव स्थान पर श्रीहरिगुरुग्राम में मुख्य मंच पर मूर्तिरूप में विराजमान था। इनमें ‘अखिल कामेश्वरी’ मंच पर बीचोबीच, ‘कालनियंत्रक’ स्वरुप उनके दाहिनी तरफ, और महासरस्वती ‘आरोग्यभवानी’ रूप बाईं तरफ स्थापित किए गए थे।

       ‘काल, काम और आरोग्य’ निहायत ही आवश्यक घटकों से बाधाओं एवं दिक्कतों को दूर करनेवाली महिषासुरमर्दिनी के इन तीनों रूपों का पूजन उत्सव के दौरान दसों दिन हुआ। हर रोज महापूजन, सुबह ७ बजे से रात के १० बजे तक नित्यजप समस्त उत्सव के दौरान नित्यरूप से किए जाते थे। महाआरती रोज दोपहर को १ बजे और रात के ९ बजे होती थी। बापूजी स्वयं महाआरती किया करते थे। श्रद्धावानों के लिए भी महापूजन का अवसर उपलब्ध किया गया था।

Sahastrachandi Yaag

          तीन प्रमुख देवताओं के समक्ष सहस्त्रचण्डि याग’ का आयोजन किया गया था।

१) ‘ॐ ऐं र्‍हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे’

२) ‘नतभ्यं-सर्वदा-भक्त्या चण्डिके दुरितापहे ।

     रुपं देही, जयं देहि, यशो देहि, द्विषौजहि।’

३) ‘ॐ नमश्चण्डिकायै’

Sahasra-Chandi-yagya

           इन तीन मंत्रों का एक सेट के रूप में, निरंतर पठण किया जा रहा था। दोपहर २ बजे और रात के ८.३० बजे सप्तशतीपाठ का पठन यहां पर किया जाता था। इस यज्ञ के लिए १०८ विशेष प्रशिक्षित पुरोहित नियुक्त किए गए थे।

          यह सहस्त्रचण्डि याग भक्तों के लिए किसी पर्वसमान ही था। किसी भी लेन-देन के बगैर श्रद्धावान इस यज्ञ में शामिल हो सकते थे। भक्तगण सहस्त्रचण्डि याग के दर्शन का लाभ उठा पा रहे थे। माता चण्डिका की  कृपा पाने के लिए प्रयास करने की ताकत और सामर्थ्य प्रदान करनेवाला यह यज्ञ था।

       ‘श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में मानव के प्राणमय देह में स्थित कलिकेंद्रों को क्षीण करने के लिए श्री ‘महाकालीकुंड’ बनाया गया था।

Mahakali kund

          महाकाली द्वारा मारे गए मधु, कैटभ, महिषासुर, शुंभ, निशुंभ, रक्तबीज, धूम्रलोचन, असिलोमा, चण्ड, मुंड और रावण ये ग्यारह असुर प्रतिकात्मक रूप में स्थित थे। यही ग्यारह असुर हमारे शरीर में कलि के प्रभाव के ग्यारह केंद्र बनाते हैं। ’कलि का जो नाश करती हैं वह काली हैं’! श्रद्धावान इस ‘महाकालीकुंड’ में ’असुर दहन द्रव्य’ अर्पण करते थे। यह किसी के लिए भी अनिवार्य नहीं था, बल्कि स्वेच्छा पर निर्भर था।

       ‘श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में महालक्ष्मी दीप’भी बापूजी द्वारा श्रद्धावानों को उपलब्ध करवाया गया एक अनोखा पर्व ही था। आज के दौर में ५२ शक्तिपीठों की यात्रा करना श्रद्धावानों के लिए बहुत ही कठिन है। सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने इस दीप में ५२ शक्तिपीठों की स्थापना की थी। उसमें ५२ बड़ी ज्योत थीं श्रद्धावान उसमें ’सुरस्नेहद्रव्य’ अर्पण कर रहे थे। श्रद्धावानों को ५२ शक्तिपीठों की यात्रा का पुण्य प्राप्त हो इस दृष्टिकोन से इस यात्रा की प्रतीक स्वरूप ’महालक्ष्मी दीप’ की योजना बनाई गई थी। कलियुग में मानव के शक्तिकेंद्रों में से जो केंद्र निष्क्रिय हो चुके हैं उनको पुन:सक्रिय तथा सशक्त करने की बहुत ही सुंदर और पवित्र संकल्पना इस महालक्ष्मीदीप द्वारा साकार हुई।

 

       ‘श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में परमपूज्य बापूजी ने मानव के प्राणमय देह के ४५ शुभंकरा केंद्रों को सक्षम बनाने के लिए श्रद्धावानों को जो अवसर उपलब्ध करवया था वह था ‘महासरस्वती वापी’।

Mahasaraswati vaapi

          वापी का अर्थ है कुंआ। ७२० कंठकूप पाषाणों का इस्तेमाल करके इसे बनाया गया था। मंत्रों सहित भली-भॉंति उसकी सिद्धता की गई थी। सनातन देवीसूक्त, पुरुषार्थ ग्रंथराज में से चुनी गईं प्रार्थनाएं एवं श्रीरामरसायन का एक महत्वपूर्ण पन्ना – इन तीनों को  मिलाकर इनका पठन करके, पूजन किया गया।

          इस वापी में भक्तगण स्वेच्छा से ’मांगल्यद्रव्य’ अर्पण कर रहे थे। ‘मांगल्यद्रव्य’ क्या है? तो हलदी, कुंकुं और अबीर। दस दिनों बाद उत्सव संपन्न होने पर इन सभी पाषाणों से ‘प्रथम पुरुषार्थधाम’ में चण्डिका गर्भगृह की मूल बैठक बनाई जाएगी। इस तरह से यह पाषाण प्रथम पुरुषार्थधाम में ‘चण्डिकागर्भगृह’ के रूप में नित्य स्थिर होंगे।

       ‘श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में शत्रुघ्नेश्वरीपूजनअर्थात  महिषासुरमर्दिनी के चौथे अवतार रक्तदंतिका अर्थात ’शत्रुघ्नेश्वरी’ नामक उग्र रूप का पूजन।

मानवी जीवन में अनेक बार संकटों का सामना करना पडता है, इन संकटों का कारण है – क्रोध, अहंकार आदि के समान षड्‌रिपू। ये अंतर्गत व बाह्य शत्रुओं एवं उनके कारनामें नष्ट हो इसीलिए इस उत्सव में ’रक्तदंतिका’ महिषासुरमर्दिनी का  चौथा अवतार अर्थात ‘शत्रुघ्नेश्वरी’ इनके इस उग्र रुप का पूजन किया गया।

          (रक्तदंतिका के अवतार की कथा मातृवात्सल्यविंदानम्‌ ग्रंथ में लिखी हुई है)| बहुत ही उग्र रूपवाली रक्तदंतिका की मूर्ति हॉल में स्थापित की गई थी। श्रद्धावान इसके समक्ष बैठकर पूजन कर रहे थे। प्रत्येक बैच के पूजन के बाद रणवाद्यों के धुन में परदा उठाया जाता और श्रद्धावानों को रक्तदंतिका का दर्शन होता था।

          रणवाद्यों के धुन में आरती भी देवी  के रूप के अनुसार बहुत ही भिन्न थी। अत्यंत उग्र रूप होने के बावजूद श्रद्धावानों के लिए ये प्रेममयी ही हैं श्रद्धावान इनके दर्शन का लाभ उठा रहे थे।

          ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में एक यज्ञ था, उसका नाम था श्रीदुर्गावरद होम’ यह ‘श्रीदुर्गावरद होम’ अर्थात माता चण्डिका की कृपा प्राप्ति हेतु जो प्रयास किए जाते हैं, वे प्रयास आसानी से करने के लिए जो ताकत लगती है वह ताकत देनेवाला होम था। यह यज्ञअत्रिसंहिता के आधार पर तथा संस्कृत मातृवात्सल्यविंदानम् ग्रंथ की आवृत्तिनुसार किया गया। नौं दिन यज्ञ जारी रहा और नौंवे दिन दिनभर यज्ञ की पूर्णाहूति के बाद यह यज्ञ संपन्न हुआ। श्रद्धावान इस यज्ञ का दर्शन कर रहे थे।

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          ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ में जान्हवीस्थानम् व गंगामाता की स्थापना उत्सवकाल का बहुत ही महत्वपूर्ण भाग था।

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          वैशाख मास में महत्वपूर्ण दिन होता है ‘गंगा सप्तमी’ अर्थात ’गंगोत्पत्ति’ का दिन। इसी दिन गंगाजी ’भागीरथी’ बनकर धरती पर अवतरित हुई थीं। इस उत्सवकाल में ही (८ मई से १४ मई २०११) १० मई के दिन ‘गंगा सप्तमी’ थी इसलिए उस दिन प्रतिकात्मक गंगाजी की स्थापना परमपूज्य सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी ने की। जहां पर यह स्थापना की गई वह स्थान जान्हवीस्थानम् माना जाता है। इस स्थान पर मकर (अर्थात मगरमच्छ) पर बैठी हुई गंगाजी की पंचधातु की मूर्ति के पूजन हेतु विधिवत्‌ प्रतिष्ठापना की गई थीं।

          उसके सामने कुछ गिनेचुने प्रपाठक बैठकर बहुत सुन्दर मंत्र का जप कर रहे थे और गंगाजी के पास निरंतर अभिषेक हो रहा था। अभिषेक का जल नहर में जा रहा था। कतार में चल रहे श्रद्धावान इस असली पवित्र गंगाजल की दो बूंदे अपने हाथ में लेकर अपने माथे पर लगा रहे थे।

          इस अभिषेक के लिए विश्वभर से शतनदियों का जल लाने का पवित्र और दुर्गम कार्य भी सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने श्रद्धावान कार्यकर्ताओं द्वारा संपन्न करवाया। उत्सव के बाद गंगामाता (शिवगंगागौरी) की स्थापना श्री अनिरुद्ध गुरुक्षेत्रम्में की गई।

          ’श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ की एक और सुन्दर बात थी अवधूतकुंभों की सिद्धता

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          पंचधातुओं के २४ कुंभों में अविरत उदीभरी हुई थी और कालातीत संहितानुसार वे कुंभ दस दिनों में सिद्ध किए गए। उनका विशिष्ट पद्धति से पूजन भी किया गया। २४ अवधूत कुंभ मुख्य तीन देवताओं की मूर्तियों के पास एक विशिष्ट यंत्र की रचना में रखे गए थे।

”श्रीवरदाचण्डिका प्रसन्नोत्सव’ वास्तव में प्रत्येक श्रद्धावान के लिए अद्भुत अनुभव था। जिन श्रद्धावानों को इस उत्सव में शामिल होने का अवसर मिला, उनके लिए यह अविस्मरणीय हो गया – कभी भी भुलाया न जानेवाला और जीवन को सुनहरा बनानेवाला अनोखा उत्सव।