श्रीक्षेत्र शिरडी रसयात्रा

‘गुरुनाम आणि गुरुसहवास | गुरुकृपा आणि गुरुचरणपायस | गुरुमन्त्र आणि गुरुगृहवास | महत्प्रयास प्राप्ती ही ॥’

श्री साईबाबा का चरित्र लिखनेवाले श्रेष्ठ साईभक्त श्री. गोविंद रघुनाथ दाभोलकर अर्थात श्री हेमाडपंतजी द्वारा लिखे गए श्रीसाईचरित्र के पहले अध्याय की ५८वीं चौपाई में सद्‍गुरु सहवास के बारे में कहा गया है। ऐसा सद्‍गुरु सहवास श्रीक्षेत्र शिरडी रसायात्रा के निमित्त सैंकड़ों श्रद्धावानों को पहली बार अनुभव करना नसीब हुआ।

भारतीय संस्कृति में तीर्थयात्रा को बहुत बड़ा महत्व दिया गया है। उसमें भी अपने सद्‍गुरुसंग ऐसे पुण्यप्रद तीर्थक्षेत्रों की यात्रा करने का अवसर मिलना पर्व समान ही होता है। सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के संग चार रसयात्राएं और एक भावयात्रा करने का सौभाग्य श्रद्धावानों को प्राप्त हुआ।

‘साई समर्थ विज्ञान प्रबोधिनी’ ने सर्वप्रथम शिरडी, तत्पश्चात अक्कलकोट, देहू-आलंदी और गोवा की रसयात्राएं आयोजित कीं और श्रद्धावानों ने सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शनानुसार इन रसयात्राओं में भक्तिरस संग्रहित करके अपने जीवन में उतारने का निर्धार किया।

चार रसयात्राओं का क्रम –

‘साई समर्थ विज्ञान प्रबोधिनी’ इस नाम में ही चार रसयात्राओं का संकेत है। साई (शिरडी के ’साईनाथ’), समर्थ (अक्कलकोट के ’स्वामी समर्थ’), विज्ञान (ज्ञानदेव ने नींव डाली, तुकाराम बने शिखर” – आलंदी के सन्तश्रेष्ठ श्री ज्ञानेश्वर महाराज एव देहू के सन्तश्रेष्ठ श्री तुकाराम महाराज) और प्रबोधिनी (भक्तों को बोध प्रदान करनेवाले ज्ञानोपदेष्टा शिव ‘मंगेश’ और उनकी अर्धांगिनी ’शान्तादुर्गा’) इन संकेतक्रमों के मद्देनजर चार रसयात्राओं का आयोजन किया गया।

इसके बाद पंढरपुर भावयात्रा हुई। ’भाव ही देव’ इस तत्त्व को स्पष्टरूप से विठ्ठलजी के चरणों में रत संतों ने अपनी रचनाओं द्वारा भगवंत के प्रति अपना भक्तिभाव सभी लोगों(का सर्वत्र प्रचार-प्रसार किया) में बांटा। चार रसयात्राओं के आयोजन के बाद सभी संतों का भाव जिनके चरणों के एकजुट हुआ, उस श्रीक्षेत्र पंढरपुर की भावयात्रा सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शनानुसार आयोजित की गई।

चार रसयात्राओं में से पहली रसयात्रा – श्रीक्षेत्र शिरडी रसयात्रा।

श्रीक्षेत्र शिरडी रसयात्रा संकल्पना

’साईनाथ मेरे निर्देशक गुरु हैं’ यह बात श्रीमद्पुरुषार्थ ग्रंथराज में स्पष्टरूप से लिखनेवाले श्री अनिरुद्धजी हमेशा कहते हैं कि, ’श्रीसाईसच्चरित’ यह पवित्र ग्रंथ सद्‍गुरु श्री साईनाथ का चरित्र तो है ही, साथ ही साथ यह साईनाथजी के भक्तों का भी आचरित(के आचरण से भी संबंधित) है। सद्‍गुरु श्रीसाईनाथजी के साईभक्तों से सद्‍गुरुभक्ति का रस ग्रहण करने के लिए सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शनानुसार सर्वप्रथम शिरडी रसयात्रा आयोजित की गई। २२ एवं २३ सितम्बर १९९६ इन दो दिनों के लिए यह रसयात्रा आयोजित की गई थी और इस रसयात्रा में अनेकों श्रद्धावान इसमें भक्तिभावसहित शामिल हुए।

श्रीक्षेत्र शिरडी रसयात्रा की उपासना

१) श्री साई गायत्री मंत्र की उपासना –

ॐ भूर्भुव: स्व:| ॐ साईनाथाय विद्महे| पूर्णपुरुषाय धीमहि| तन्नो सद्‍गुरु: प्रचोदयात्॥

यह श्री साईगायत्री मंत्र साईभक्तों में प्रचलित है। शिरडी रसयात्रा में सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी ने श्रीसाईगायत्री मंत्र का जप श्रद्धावानों द्वारा कराया। इसके बाद सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी ने इस श्री साईगायत्री मंत्र का महत्व विस्तारपूर्वक समझाया। तत्पश्चात जमुना नदी के गहराई से लाया हुआ चिकनी मिट्टी का गोला केले के पत्ते पर प्रत्येक श्रद्धावान को दिया गया गया। श्रद्धावानों को उस मिट्टी के गोले से श्रीसाईनाथ की प्रतिकात्मक पादुकाएं बनाने के लिए कहा गया।

इसके अलावा श्रीसाईनाथ की ’मक्खन की पादुकाएं’ श्रीसाईसच्चरितकार हेमाडपंतजी के पोते अप्पासाहब दाभोलकर और अप्पासाहब की पत्नी मीनाभाभी दाभोलकर इस श्रेष्ठ श्रद्धावान दंपत्ति ने सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार बनाई थीं। मक्खन यानी नवनीत इसे भक्ति का प्रतीक माना जाता है इसीलिए सद्‍गुरुभक्तिरूपी मक्खन की पादुकाएं साईचरणों में अर्पण की गईं।

बचपन में श्रीसाईनाथजी की गोद में खेले और उनके सहवास में रहे  भक्तश्रेष्ठ चौबल दादाजी एवं चौबल दादीजी ने सभी श्रद्धावानों की ओर से समर्पण के प्रतीक  स्वरूप होने वाले १०८ तुलसीपत्र इन नवनीत पादुकाओं पर अर्पण किए। तत्पश्चात नवनीत पादुकाओं पर सभी श्रद्धावानों ने स्वयं मिट्टी के गोलों से बनाई हुई प्रतिकात्मक साई की पादुकाएं और अर्चनद्रव्य अर्पण किए। दूसरे दिन इन सभी पादुकाओं का पवित्र गोदावरी नदी में भक्तिमय वातावरण में पुनर्मिलाप किया गया।

२) श्री शिवगायत्री मंत्र की उपासना –

श्री शिवगायत्रीमंत्र की उपासना अर्थात ‘अमृतमंथन उपासना’। देव-दानवों के युद्ध में देवों ने जब दानवों की सहायता से (अर्थात अच्छे प्रवृत्तियों ने जब बुरी प्रवृत्तियों की सहायता से) अमृतमंथन किया तब प्रथम विष (हलाहल)बाहर निकला। इसके बाद अमृत की प्राप्ति होनी थी इसलिए उस विष का प्राशन करके उसे पचाना ज़रूरी था। यह सामर्थ्य केवल परमशिवजी के पास था। सभी देवदेवताओं ने परमशिव की प्रार्थना की तो परमशिव ने वह हलाहल अर्थात उस विष का प्राशन किया और देवों को अमृत का लाभ करवाया।

हमारे जीवन के संकटरूपी, दिक्कतरूपी, दुष्प्रारब्धरूपी हलाहल को परमशिव नष्ट करके हमें आनंदरूपी अमृत प्रदान करें इस भाव से अत्यंत पवित्र श्री शिवगायत्रीमंत्र की उपासना शिरडी रसयात्रा के पहले दिन शाम को ७ बजे अयोजित की गई थी। तब श्री अप्पासाहब दाभोलकर और मीनाभाभी दाभोलकर इस ज्येष्ठ श्रेष्ठ श्रद्धावान दंपत्ति ने सद्‍गुरु अनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार शिवलिंग बनाया। उस पूजन में ॐ भूर्भुव: स्व:। ॐ तत्पुरुषाय विद्‌महे। महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्‌॥ सद्‍गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने श्रद्धावानों से इस शिवगायत्री मंत्र का १०८ बार जप करवाया। तब सभी श्रद्धावानों ने आर्तता से साईनाथ को पुकारा।

आरती –

शिवगायत्री मंत्रपठन के बाद आरती की गई। तत्पश्चात सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के कहेनुसार, साईबाबा की भक्ति में रममाण हुए श्रेष्ठ भक्तों का स्मरण करानेवाला गजर सद्‍गुरु अनिरुद्धजी के साथ सभी श्रद्धावानों ने मिलकर सुर-ताल में गाया। वह गजर था –

‘दीक्षित, शामा, हेमाड, बायजाबाई, नाना, गणु, मेघश्याम।

यांची वाट पुसता पुसता मिळेल आम्हां साईराम॥’

रात के ११ बजे आरती के बाद सभी श्रद्धावानों ने भगवत दर्शन का लाभ उठाया और फिर ‘ॐ कृपासिंधु श्री साईनाथाय नम:।’ इस मंत्र का जप किया। भोजन के उपरांत सभी को सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के संग अभूतपूर्व सत्संग में शामिल होने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ।

शिरडी रसयात्रा दूसरा दिन –

इस दिन सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के साथ श्रद्धावान श्रीक्षेत्र शिरडी स्थित अत्यंत महत्वपूर्ण पावन स्थानों के दर्शन कर पाए और सद्‍गुरु के मुख से उन स्थानों का महत्व जान पाए। “भक्तगण शिरडी आते हैं और केवल मंदिर में बाबा के दर्शन करके लौट जाते हैं, मगर शिरडी में और भी महत्वपूर्ण स्थान हैं”, ऐसा बापूजी ने कहा था।

वे स्थान थे –

१) द्वारकामाई – माई यानी वत्सल माता! द्वारकामाई में धूनी, नंदादीप, साईबाबा का बड़ा फोटो, बाबा के बैठने की शिला, जिस पर बाबा रसोई बनाते थे वह चूल्हा, तुलसीवृंदावन, पालकी जैसी अनेक चीजों का महत्व श्रद्धावानों को परमपूज्य बापूजी ने अच्छी तरह समझाया।

२) हनुमान मंदिर – इस मंदिर में हनुमानजी की दो मूर्तियां पास-पास में हैं और उनके पूंछ मिले हुए हैं। मानव के जीवन में द्वंद्व, विरोधाभास दूर करनेवाले और श्रीराम चरणों में एकनिष्ठ भाव दृढ करनेवाले रामदूत हनुमानजी के सामर्थ्य को इस मूर्ति में दर्शाया गया है। सद्‍गुरु ने श्रद्धावानों को यह जानकारी दी।

३) लेंडी बाग – इस बाग के कुंए के मीठे पानी से साईबाबा मुखमार्जन किया करते थे।

४) दत्तमंदिर – इस स्थान पर श्रीसाईबाबा ने श्री उपासनी महाराज को ’ॐ’ मंत्र की उपासन करने को कहा था।

५) श्रीखंडोबा मंदिर – इसी मंदिर में भक्त म्हालसापतीजी ने श्रीसाईनाथ का ’आओ साई’ कहकर स्वागत किया था। तब से सभी बाबा को ’साई’ नाम से पुकारने लगे।

६) कानिफनाथ मंदिर – नवनाथों में से एक नाथ कनिफनाथजी का मंदिर शिरडी में है। श्रीसाई देहधारी थे तब उस मंदिर में जाया करते थे, ऐसा कहा जाता है।

७) भक्त म्हाळसापतीजी की समाधि – श्रेष्ठ साईभक्त म्हाळसापतीजी की समाधि म्हालसापतीजी के निवासस्थान में ही बनाई गई है। सदैव साईबाबा की छाया बने रहे और साईबाबा को प्रथम ’साई’ कहकर पुकारनेवाले म्हालसापतीजी की समाधि के दर्शन किए बगैर शिरडी यात्रा पूर्ण नहीं होती, ऐसी मान्यता है।

८) नानावल्लीजी की समाधि – बाबा के निष्ठावान भक्त नानावल्ली संन्यासी वृत्ति से शिरडी में रहा करते थे। श्रीसाईनाथ के देहत्याग के बाद केवल सात दिनों बाद उन्होंने भी अपना देहत्याग दिया।

९) पूज्य भाऊमहाराज कुम्हार की समाधि-ये श्रीसाईनाथ के एक श्रेष्ठ भक्त थे। साईनाथ ने उन्हें बालरूप में दर्शन दिया था, ऐसा कहा जाता है।

१०) तात्या कोते पाटील समाधि – साईभक्त म्हालसापती भगत एवं तात्या कोते पाटील दोनों द्वारकामाई में साईबाबा की ओर पैर करके सोते थे, ऐसा उल्लेख श्रीसाईसच्चरित में आता है। बायजाबाई के सुपुत्र तात्या कोते पाटील अपनी माता के(ही समान) अनुसार साई की निष्ठापूर्वक भक्ति किया करते थे। वे साईनाथ को प्रेम से मामा मामा कहा करते थे। साईनाथ की सेवा में सतर्क रहनेवाले वे एक निष्ठावान साईभक्त थे।

११) अब्दुलबाबा समाधि – श्रीसाईं के एक नजदीकी भक्त अब्दुलबाबा को चालीस साल तक का साईनाथ का सहवास प्राप्त हुआ। उनकी समाधि भी शिरडी में ही है।

१२) शामसुंदर समाधि – साईनाथ का श्यामकर्ण (श्यामसुन्दर) नामक अश्व साईनाथ की चावडी के जुलूस में सबसे आगे हुआ करता था।

अघाडी घोडा तो ताम्रवर्ण । नाम जयाचें श्यामकर्ण । घुंगुरें झणत्कारिती चरण । सर्वाभरणमंडित जो ॥

– श्रीसाईसच्चरित ३७ / १४६ हेमाडपंतजी ने इन शब्दों में उसका वर्णन किया है। साईनाथ से अत्यंत प्रेम करनेवाले इस शामसुन्दर की समाधि भी शिरडी में है।

* इस तरह से सभी स्थान, मंदिर और समाधि स्थानों का दर्शन सद्‍गुरु के साथ किया गया। इसके साथ ही साईनाथ का पसंदीदा अमरूद का प्रसाद भी प्रत्येक को सद्‍गुरु के हाथों प्राप्त हुआ।

इस शिरडी रसयात्रा की विशेषताएं –

१. श्रीक्षेत्र शिरडी में महत्वपूर्ण स्थानों की जानकारी और महत्ता जानने की वजह से श्रद्धावानों के मन में साईभक्ति दृढ हुई। द्वारकामाई में घटी हुई कई कथाएं, म्हालसापतीजी की दास्यभक्ति, माधवराव देशपांडेजी की सेवातत्परता, तात्या कोते पाटीलजी की निष्ठा, काकासाहब दिक्षितजी का आज्ञापालन, हेमाडपंतजी का शारण्यभाव, दासगणुजी का सद्‍गुरु वचन प्रमाण, नानासाहब चांदोरकरजी का संपूर्ण समर्पण, सद्‍गुरुभक्ति, बायजाबाईजी का सद्‍गुरुप्रेम, लक्ष्मीबाईजी की सेवाशीलता, प्राणीयोनी में जन्मा फिर भी साई से प्रेम करनेवाला श्यामसुंदर अश्व ऐसे कई बातों की स्पष्टता सद्‍गुरु ने कराई और उसका भावार्थ समझाया। इसकी वजह से श्रद्धावानों ने जाना कि, उन्हें अपने जीवन में भक्तिरस कैसे प्रवाहित करना है।

२. सद्‍गुरु के साथ श्रद्धावानों को विभिन्न उपासनाएं और सत्संग एवं गजर करने का सुनहरा अवसर प्राप्त हुआ।

३. श्रद्धावानों को सद्‍गुरु श्री अनिरुद्धजी के मुख से श्रीसाईनाथजी की महत्वपूर्ण जानकारी शिरडी में मिली।

४. प्रत्येक श्रद्धावान का भाव यही था कि इस शिरडी रसयात्रा की वजह से सद्‍गुरु के साथ भक्तिमय प्रेमप्रवास का सुअवसर प्राप्त हुआ। सद्‍गुरु श्रीअनिरूद्धजी ने हमारे जीवनप्रवास में श्रद्धा का ’खूंटा’ ठोककर पक्का किया।