श्रीश्‍वासम्

‘द हिलिंग कोड आफ द युनिव्हर्स!’ साक्षात माँ ने, आदिमाता ने अपने सभी बच्चों को दिया हुआ ‘सर्वोत्तम उपहार’ है ‘श्रीश्वासम्’।

आदिमाता की सर्वोच्च एवं सर्वोत्कृष्ट ‘निरोगीकरण शक्ति’ (आरोग्य प्रदान करनेवाली शक्ति) ही संपूर्ण चराचर सृष्टि में व्याप्त है। इसी शक्ति को ‘दि युनिव्हर्सल हिलिंग पावर’ अर्थात ‘अरुला’ कहते हैं। यह सर्वव्यापक अरुला शक्ति ही आदिमाता की करूणाघन अनुग्रह- कृपादृष्टि- अर्थात Grace अथवा Unmerited Favour अर्थात योग्यता की या लायक होने की शर्त न रखते हुए की सहायता, मदद, आधार है। यह कृपादृष्टि (अरुला) श्रध्दावानों को मिले इस हेतु से सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने परम पवित्र श्रीश्वासम्‌ महोत्सव का आयोजन किया था।

* मानव को यह निरोगीकरण (स्वास्थ्य प्रदान करनेवाली) शक्ति प्राप्त कराता / करवाता है,

* मनुष्य के जीवन में, शरीर, मन, प्राण और प्रज्ञा इन सभी स्तरों पर उत्साह निर्माण कराता / करवाता है,

* मानव का अभ्युदय कराता है,

* श्रद्धावानों का जीवन सुंदर तथा सफल कराता है,

* श्रद्धावानों के जीवन में पवित्र तथा हितकारक (लाभदायक) परिवर्तन (Transformation)

  कराता है,

* पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय, ग्यारहवाँ मन और बारहवीं प्रज्ञा, तथा बारह प्राण (स्रोत), इनमें से कहीं भी अवरोंध / बाधा उत्पन्न होनेसे निर्माण होनेवाले दुःख दूर कर, उसके द्वारा सम्पूर्ण मानव समाज को ‘आरोग्यं सुखसंपदा’ प्राप्त कराता / करवाता है !

‘श्रीश्‍वासम्’ के बारे में संक्षेप में समझाते हुए, सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने स्पष्ट किया था कि, ‘श्रीश्‍वासम्’ मेरा सत्यसंकल्प है। वह माँ जगदम्बा की सक्रिय श्वसन प्रणाली है। उदाहरण के तौर पर यदि देखा जाय तो, जैसे कोई ज़ख्म दवा लगाने से ठीक हो जाती है, वैसे ही हमारेपास जिन उचित तत्वों की कमी है, वे सभी कमियाँ हमारी अपनी क्षमतानुसार प्रदान करने के लिए आदिमाता और उनके पुत्र की कृपा है ‘श्रीश्‍वासम्’।

जब बच्चा माँ की कोख़ में होता है तब उसकी माँ बच्चे के लिए साँस लेती है और उसके नाल से बच्चे को आवश्यक होनेवाली हर चीज़ उसे प्रदान की जाती है। उसी समय बच्चे के लिए जो भी अनुचित चीजें हैं वह सब माँ स्वयं स्वीकारती है। आदिमाता की कार्यप्रणाली भी कुछ इसी तरह से समझी जा सकती है। आदिमाता से मुझे जोड़नेवाली नाल है त्रिविक्रम। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी, अधिक व्यापक स्तर पर, इस महोत्सव की महिमा को स्पष्ट करते हुए बतातें हैं कि, ”यदि ‘श्रीश्वासम्’ हमारे आध्यात्मिक जीवन का श्वास बनता है तो अपने-आप ही हमारा जीवन सुंदर बनता जाएगा। ‘श्रीश्वासम्’ से हमें अपना स्वास्थ्य तो सुधारना ही है वैसे ही सम्पूर्ण विश्व का स्वास्थ्य सुधारने के लिए भी आदिमाता को आह्वान करना है कि, ”हे आदिमाता, संपूर्ण वसुंधरा का स्वास्थ्य आप अबाधित रखें!’ अर्थात ‘श्रीश्वासम्’ व्यक्तिगत स्तर पर कार्यरत तो है ही, इसी के साथ वह हमारे परिवार के लिए, गांव के लिए, साथ ही धर्म, देश, मातृभूमि के लिए और संसार के हर अच्छे जीवों के लिए भी है।

सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार, यह विशेष ‘श्रीश्वासम्’ महोत्सव, सोमवार, दिनांक ४ मई २०१५ से रविवार, दिनांक १० मई २०१५ तक न्यू इंग्लिश स्कूल, अर्थात श्रीहरिगुरुराग्राम, बांद्रा यहाँ पर भरपूर उत्साह एवं श्रद्धावानों के बेहिसाब उपस्थिति में सम्पन्न हुआ।  

 

सजावट तस्बीर

) प्रमुख मंच पर चण्डिकाकुल के तस्बीर के साथ ही अंजनामाता और उनकी गोद में बैठे बाल हनुमानजी तथा दूसरी ओर शताक्षी (शाकंभरी) माता की विस्तृत आकार की खूबसूरत तस्वीरें थीं। महोत्सव के दौरान उनकी पूजा की जा रही थी।

 

) वहीं मैदान में सामने ‘परिक्रमाकक्ष’ था जहाँ पच्चीस तस्बीरों की ऐसी व्यवस्था की गयी थीं, कि श्रद्धावन हर तस्बीर के दर्शन करते हुए प्रमुख मंच की ओर बढ़ सकतें थे। उन २५ तस्बीरों का अनावरण सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने पूजन करके तथा हरा नारियल, गेहूं, और हार अर्पण करके किया था।

इन तस्बीरोंकी रचना इस प्रकार की गयी थी :

१. मूलार्क गणपति २. आदिमाता महिषासुर्दिनी ३. अवधूत श्रीदत्तात्रेय ४. पंचमुख हनुमानजी की तस्वीरें थीं ।

इसके पश्चात्‌,

आदिमाता के विविध रूप प्रदर्शित करनेवाली तस्वीरें इस प्रकार रचीं गयी थीं :

५. आदिमाता नारायणी ६. अदीमाता अंबाबाई ७. आदिमाता बालत्रिपुरा ८. आदिमाता श्रीविद्या ९. आदिमाता रणदुर्गा १०. आदिमाता शारदांबा ११. आदिमाता भूवनेश्वरी १२. आदिमाता दंडनाथा १३. आदिमाता तुलजाभवानी १४. आदिमाता निसर्गमालिनी १५. आदिमाता रेणुका १६. आदिमाता महागौरी १७. आदिमाता महासिद्धेश्वरी १८. आदिमाता मीनाक्षी १९. आदिमाता अष्टभुजा २०. आदिमाता महायोगेश्वरी २१. आदिमाता ‘अदिति’ २२. आदिमाता अनसूया-दुर्गा २३. आदिमाता सप्तशृंगी ऐसी अत्यंत आकर्षक, सजीली, मनोहारी, और विभिन्न कार्यों के अनुसार आदिमाता के विविध रूप प्रदर्शित करनेवाली तस्बीरों के पश्चात्‌, २४. श्रीत्रिक्रम २५. महाविष्णु के पीठ पर आलेखित की गयी कूर्मपीठ की तस्बीर। ऐसी ही कूर्मपीठ की एक छोटी तस्बीर प्रमुख मंच पर स्थित आदिमाता के मूर्ति के चरणों के पास रखी गई थी। कुर्मावतार के पीठ पर आलेखित श्रीयंत्र को बहुत ही पवित्र माना जाता है।

) प्रमुख मंच के बायीं ओर स्थित कक्ष में महाप्राण हनुमानजी की मूर्ति एक तरफ और उसके सामने की ओर दो अश्विनी कुमारों की मूर्तियाँ स्थापित ली गईं। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी द्वारा इन मूर्तियों की स्थापना की गई थी।

) कक्ष के दूसरी ओर ‘उषा पुष्करिणी कुंड’ स्थापित किया गया था। उस कुंड के जल पर श्रीत्रिविक्रम की पंचधातु की मूर्ति थी, इस मूर्ति की स्थापना और उषादेवी के तस्बीर की पूजा करके सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने इनका अनावरण किया।

 

महोत्सव कार्यक्रम

ये महोत्सव, वैशाख पूर्णिमा ४ मई २०१५ सुबह ८:०० बजे से शुरू हुआ। इसे तीन चरणों में वर्णित किया जा सकता है।

१) जोगवा परिक्रमा २) गुह्यसूक्तम्‌ परिक्रमा और ३) समर्पणम्‌ परिक्रमा।

) जोगवा परिक्रमा इस परिक्रमा को आरंभ करने से पहले, मंडप में प्रवेश करते समय श्रद्धावानों के माथेपर ‘नाम’  गंध से लगाया जा रहा था और उनके हाथ में मूषकजी (गणपतिजी के वाहन) का एक चित्र बना हुआ कागज़ दिया जा रहा था। उसी कागज़ पर, जो मूषकजी का चित्र बनाया गया था उसके सामने तीन मूषकजी के चित्र बनाने के लिए श्रद्धावानों को कहा जाता था। इसके बारे में सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी ने जो महिमा वर्णन किया था वह पहले जान लेतें हैं तत्पश्चात जोगवा परिक्रमा जिसके बारे में स्पष्टीकरण देखतें हैं।

मूषक महती मूलाधार चक्र के स्वामी होते हैं महागणपतीजी, जिनका वाहन है मूषक। यह मूषक श्वास (साँस) का प्रतीक है! श्वसन के द्वारा मिलनेवाली ऊर्जा सम्पूर्ण शरीर को उपलब्ध की जाती है। चूहा जैसे अपने बिल में अंदर-बाहर करता रहता है, वैसेही अपनी श्वासोच्छश्वास की क्रिया चलती रहती है। यही कारण है कि गणपतिजी जो घनप्राण हैं उनके मूषक का चित्र तीन बार कागज़ पर बनाना था। (१. नाक से साँस अंदर लेना २. अंतःश्वसन ३. साँस बाहर छोड़ना) यह कागज़ परिक्रमा के शुरुआत में ही मूलार्क गणपतिजी को अर्पण करना था और उनको प्रार्थना करनी थी कि, ‘हे घनप्राण गणेशजी, आप मेरे साँसों पर सवार हों और मेरे त्रिविध देह का रक्षण करें!’

इसके पश्चात्‌, जोगवा परिक्रमा करते वक्त श्रद्धावान, आदिमाता को चढ़ाए जाने वाले प्रसाद में दाल, चावल, तीन केले और पत्री (माता को अर्पण की जानेवाली विशिष्ट प्रकार की पत्तियाँ) सूप (अनाज छाँटकर सफाई करनेवाला थाल) में लेकर जा रहे थे। इस प्रकार की परिक्रमा करना संपूर्ण रूप से ऐच्छिक था, बिना सूप के परिक्रमा करने में भी श्रद्धावान धन्यता मान रहे थे। परिक्रमा करते वक्त श्रद्धावानों को  आदिमाता के विभिन्न तस्वीरों से विभिन्न छवियोंका दर्शन हो रहा था। ‘जय जगदंब जय दुर्गे’, ॐ नमश्चण्डिकायै और ‘हे आदिमाता, तुम प्रेममयी हो और मैं अंबज्ञ हूँ’, ‘हे मेरे सद्गुरु, आपप्रेममय हैं और मैं अंबज्ञ हूँ’, ऐसे घोष उभर रहे थे। श्रीत्रिविक्रम के दर्शन करने से ही यह परिक्रमा पूर्ण हो रही थी। ‘ये श्रीत्रिवक्रम ही श्रद्धावानों के जीवन के एकमात्र एवं सम्पूर्ण आधार हैं’ यह गवाही जैसे परिक्रमा करनेवाले श्रद्धावानों को श्रीत्रिविक्रम ने दी है, ऐसा श्रद्धावानों का विश्वास ​​है।

इसके पश्चात सूप में रखी हुई पत्री अर्पण करने के लिए बनाये गये जलकुंड में सूप में रखे हुए दाल, चावल और दो केले आदिमाता को अर्पण किये जा रहे थे। दाल और चावल सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शन में कार्यरत ‘अन्नपूर्णा प्रसादम्‌ योजना’ के अंतर्गत जरुरतमंदों तक पहुँचए गये। (लिंक ..)। तीन केलों में से एक केला श्रद्धावान को प्रसाद के रूप में दिया जा रहा था। परिक्रमा पूर्ण होते ही, श्रद्धावान प्रमुख मंचपर स्थित चण्डिकाकुल तथा श्री आदिमाता के मनोहारी और सौम्य स्वरूप के शताक्षीमाता (शाकंभरीदेवी) जी के एवं अंजनामाता के गोद में बैठे हुए बालहनुमनजी के दर्शन बहुत ही भक्तिभाव से ले रहे थे।

शताक्षीमाता (शाकंभरीदेवी) का महत्व सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी लिखित ‘मातृवात्सल्यविंदानम्’ इस ग्रन्थ में वर्णित कथा के अनुसार सौ साल तक निरंतर सूखा पड़ने के कारण सामान्य मनुष्यों को बेहाल देखकर ब्रह्मर्षि अगस्त्य और कई अन्य महर्षियों ने माता पराम्बा का स्तवन किया। तब वह चण्डिकामाता वहाँ साक्षात प्रगट हुई। सभी महर्षियोंने उनका जयघोष करते हुए प्रार्थना की, ‘हे चण्डिकामाता, आप अपने उग्र रणरागिणी रूप को पलभर के लिए हटाकर अपने वत्सल रूप में सारे पृथ्वीपुत्रों की ओर देखें।’ ऋषिमुनियों के इस पवित्र इच्छा का सम्मान करते हुए आदिमाता ने एक बहुत ही मनोहारी और सौम्य रूप धारण किया। आदिमाता के इस रूप में वें शतनेत्र धारण किये हुए थीं, इसके परिणामस्वरूप महर्षियों द्वारा उन्हें ‘शताक्षी’ नामाभिधान प्राप्त हुआ। आदिमाता शताक्षी अपने हाथों में नवपल्लव शाखा, पुष्प, फल, कंदमूल, अक्षय्य जलपात्र, धनुष, बाण, हल ऐसे औजार तथा आयुध धारण किये हुए थीं। माता शताक्षी ने संपूर्ण पृथ्वी की ओर अपने शतनेत्रों से अपनी प्यारभरी नजरों से देखा, और पृथ्वी को पुनः उपजाऊ वसुंधरा बना दिया। यह लीला देख अगस्त्य आदि महर्षियों ने माता को शाकंभरी, अन्नदा, नीलदुर्गा ऐसे विभिन्न नामों से गौरवान्वित किया। ऐसे शताक्षी माता की तसबीर ‘श्रीश्‍वासम्’ महोत्सव में प्रमुख मंच पर विराजमान थीं। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने शाकंभरीमाता से मिन्नतें की ‘यह वसुंधरा सदैव सुजलाम् सुफलाम् रहे और यहाँ पर सुख- समृद्धी सदैव बनी रहे वास करे’। ‘श्रीश्वासम्’ महोत्सव का यही उदात्त भाव था कि, जवान और किसान जो राष्ट्र के आधारस्तंभ हैं वें समर्थ बने।

श्रद्धावान दर्शन करते हुए जब आगे बढ़ रहे थे तब १) श्रीमूलार्क गणेशमंत्र २) श्रीदत्तात्रेय स्तोत्रम् ३) श्रीसुक्तम् ४) पंचमुख हनुमानस्तोत्र ५) अश्विनीकुमार सूक्त ६) उषासूक्त इन स्तोत्रों एवं मंत्रों का पठन एक के बाद एक, इस क्रम से, नित्य चल रहा था। इस वजह से श्रद्धावान भक्तिरस में रंग कर तृप्त हो रहे थे। त्रिविक्रम गायत्री मंत्र का भी पठन हो रहा था।

ॐ मातृवेदाय विद्महे। श्रीश्वासाय धीमहि। तन्नो त्रिविक्रमः प्रचोदयात्॥

सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने अपने प्रवचन में कहा था कि यह ‘झालर’ हमारे बड़ी माँ – माता चंडिका का आँचल है। इस आशीर्वादस्वरूप ‘झालर’ की निर्मिती कुछ इस प्रकार से की गयी थी कि प्रमुख मंच की ओर जाते वक्त और दर्शन करके प्रमुख मंच से आगे बढ़ते वक्त, दोनों ही जगहों से जब श्रद्धावान आगे बढ़े तो उस ‘झालर’ के निचे से उनका मार्गक्रमण हो। इसप्रकार, माँ के आँचल का सहारा हर श्रद्धावान को मिल रहा था।

गुह्यसूक्तम्‌परिक्रमा प्रमुख मंच के बायीं ओर के कक्ष में पंचमुख हनुमानजी और अश्विनीकुमारों की मूर्तियों के बीच एक निश्चित सीमा थी उसी के अंतर्गत श्रद्धावानों को परिक्रमा करने की व्यवस्था की गयी थी। यह परिक्रमा करने के लिए हाथ में लेने के लिये तीर्थजल से भरे कुंभ की व्यवस्था की गयी थी। वहीं पर कुंभ में उपलब्ध जल तापी, इंद्रायणी और पांजरा इन पवित्र नदियों से लाया गया था। श्रद्धावान तीर्थजल का कुंभ अपने दाहिने हाथ पर रखकर, अपना बायाँ हाथ कुंभ के ऊपर रखकर गुह्यसूक्तम्‌ सुनते हुए यह परिक्रमा कर रहे थे और यही इस महोत्सव का विशेष आकर्षण था।

आज हमें देखते पड़ता हैं कि, केवल शारीरिक स्तर पर ही नहीं बल्कि मानसिक और बौद्धिक स्तर पर भी रोग की स्थिति निर्माण हुई है। रिश्तों में, नौकरी-धंदे में, गृहस्थी में जीवन निर्वाह करते वक्त, शिक्षा लेते वक्त, आर्थिक स्थिति में ऐसे सभी स्तरों पर हमें ‘निरोगीकरण’ (स्वास्थ्य प्रदान करनेवाली शक्ति / हिलिंग) की जरुरत है। व्यक्ति, समाज, राष्ट्र, विश्व ऐसे सभी जगहों पर इस निरोगीकरण की आवश्यकता है, यह जानकर सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी का पितृहृदय तड़प उठा और उन्होंने बड़ी माँ अर्थात आदिमाता चण्डिका को जो प्रार्थना की, उसीसे प्रकट हुआ ‘वैश्विक निरोगीकरणम्‌गुह्यसूक्तम्’!

गर्भावस्था में, शिशु जैसे केवल सुनता है और उसके माता का श्वास उसके देह में संचारित होता है उसी तरह हम श्रद्धावानों को यह गुह्यसूक्तम् सिर्फ़ एकाग्रता से सुनना है। इसे सुनते वक्त हमारे जीवन की सभी प्रकारकी अनुचितता को ये आदिमाता अपने साँसो द्वारा ‘स्वयं में’ समावित कर लेतीं हैं और उनका करुणाघन वैश्विक अनुगृह शक्ति (The Universal Healing Power) अपने साँसों से बाहर निकालकर, श्रद्धावान की साँसों में समावित कर, उसके देह में संचारित करतीं हैं ।

इसीलिए, बापू द्वारा मुक्त हस्त से दी गयी इस गुह्यसूक्तम्‌ के समान सर्वोत्कृष्ट उपहार का स्वीकार करते हुए श्रद्धावान तृप्ति के उच्चतम शिखर पर विराजमान हो रहे थे। यह गुह्यसूक्तम् अर्थात ‘द यूनिवर्सल हिलिंग कोड’ सुनते समय, उसके प्रेमल सुंदर मधुर शब्द तथा उसके सुर ताल, संगीत, मन को विलक्षण शांति, तृप्ति तथा समाधान प्रदान कर रहें थें। गुह्यसूक्तम्‌ का प्रत्येक मंत्रमय अक्षर हमारे अंदर ‘हिलिंग’ कर रहा है (अर्थात जख्म भर रहा है) ऐसी अनुभूति हो रही थी। चराचर में भरी हुई आदिमाता की निरोगीकरण शक्ति यहाँ श्रद्धावानों को असीम रूप में मिल रही थी। सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी द्वारा लिखित मातृवात्सल्य उपनिषद में ‘विगत’ की यात्रा जिस प्रकार करायी गयी उसी प्रकार हमारा जीवनप्रवास श्रीत्रिविक्रम करा रहे हैं, इस भाव से परिक्रमा पूर्ण करके श्रद्धावान आगे बढ़ रहे थे।

यह गुह्यसूक्तम् कब सुने ?

आनंदित होते वक्त – आनंद द्विगुणित करने के लिए

दु:ख के समय – दु:ख कम करने के लिए

रोज सुबह – दिन अच्छा गुजरने के लिए

रोज रात को – शांत नींद पाने के लिए तथा 

बीमारी में – तबियत स्वस्थ रखने के लिए |

इसीलिए मराठी, हिंदी, अंग्रेजी तथा संस्कृत भाषाओं में गुह्यसूक्तम्‌ की सी.डी. उपलब्ध करने का प्रबंध संस्थाद्वारा किया गया है | 

) समर्पण परिक्रमा गुह्यसूक्तम् परिक्रमा कमसेकम तीन बार पूरी करने के बाद, श्रद्धावान हाथ में जलकुंभ लेकर परिक्रमा कक्ष की दूसरी तरफ पुष्करिणि तीर्थ के पास आकर उषादेवी की तस्बीर और त्रिविक्रमजी की मूर्ति के दर्शन करते हुए तीर्थजल अर्पण कर रहे थे ।

श्रीहरिगुरुग्राम (न्यू इंग्लिश स्कूल, बांद्रा) के पासही ‘उत्तरभारतीय संघ हॉल’ में बड़ी माँ (माता चण्डिका) के प्रतिमा के सामने ‘सप्तचक्र-स्वामिनी महापूजन’ करने की व्यवस्था की गयी थी । यह महापूजन करने के उपरांत श्रद्धावान पुन: प्रमुख मंच (श्रीहरिगुरुग्राम) पर स्थित माता शताक्षी (शाकंभरी) देवी के सामने अपने पूजन की थाली से तरकारियाँ, फल, और अंजनामाता को ब्लाउज पीस (खण) अर्पण कर रहे थे । यह कृपा प्राप्त करानेवाला एच्छिक पूजन था।

महाभोग अर्पण समारोह

यह एक अनुपम समारोह हुआ करता था। सुबह ८:०० बजे, दोपहर अर्थात मध्यान्ह के समय और रात को ८:०० बजे प्रमुख मंच के देवताओं का पूजन होने के उपरांत महाभोग दोपहर १:०० बजे और रात को ८:०० बजे मंगलवाद्यों के जयघोष के साथ धूमधाम से अर्पण किया जाता था।

 

श्रीश्‍वासम्की फलश्रुति

१) आदिमाता की निरोगीकरण शक्ति (अरुला) गुह्यसूक्तम्‌ के द्वारा बड़े ही  सहज रूप में श्रद्धावानों नि:शुल्क को प्राप्त हुई। यह सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी और आदिमाता द्वारा प्रदान किया गया अचिन्त्यदान है।

२) श्रद्धावानों का संपूर्ण भूतकाल, अर्थात दुष्प्रारब्ध परिवर्तित करने का सर्वोत्कृष्ट उपाय है और यह वचन यथार्थ होगा ही, क्योंकि यह सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी का वचन है, ऐसा श्रद्धावानों का विश्वास है।

३) ‘श्रीश्‍वासम्’ जन्मजन्मांतर तक के लिए कार्यरत है क्योंकि यह सद्गुरु अनिरुद्धजी का वचन है, शर्त सिर्फ एक ही है ‘पूर्ण विश्वास’!

४) विश्व में केवल एक ही ऐसा कूर्म है जिनकी पीठपर श्रीयंत्र बना हुआ है और ऐसे श्रीयंत्र का दर्शन सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी की कृपा से श्रद्धावानों को प्राप्त हुआ।

५) ‘श्रीश्‍वासम्’ श्रद्धावानों के बारह प्रकार की क्षतियों पर उपचार करता है। इस बारे में विस्तारपूर्वक जानकारी ‘श्रीश्‍वासम्‌गुह्यसूक्तम्‌’ इस पुस्तिका में दी गयी है। 

* इस महोत्सव की समाप्ति सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार ‘विश्वार्पण कलश’ समारोह द्वारा हुई । उस समय सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने श्रद्धावानों को जो ‘श्वास’ प्राप्त कराया वह क्षण स्मरण में रखने के लिए कहा था । ‘मेरा श्वास मैंने आपको हमेशा के लिए दे दिया है’, सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के इन शब्दों को सुनकर श्रद्धावान तृप्त हुए और अत्यंत संतुष्ट एवं प्रसन्नचित्त होकर परन्तु भारी अंत:करण के साथ, इस अद्‌भुत आनंददायी महोत्सव की समाप्ति हुई ।

॥ जय जगदंब जय दुर्गे’॥