भारतीय प्राचीन बलविद्या

लड़ाई केवल शक्ति से ही जीती जानी चाहिए ऐसा बिलकुल नहीं है। मन और बुद्धि भी अपने शरीर के साथ- साथ ताकतवान होने चाहिएं क्योंकि, युद्ध केवल शारीरिक सामर्थ्य का इस्तेमाल करके नहीं किया जाता बल्कि अपने मानसिक और बौद्धिक स्तर भी किया जाता है। इसीलिए, युद्धकला के प्राच्यविद्या का अध्ययन करना और उसका प्रशिक्षण उचित जगह से लेना अत्यंत आवश्यक है।

आजकल के जानलेवा स्पर्धा युग के वजह से तथा अनियमित जीवनशैली की वजह से युवावर्ग तनावग्रस्त रहता है। इस तनाव की वजह से वह अपनी तन्दुरुस्ती का खयाल नहीं रख पाता। बड़े पैमाने पर इसके दुष्परिणाम पर दिखाई देने लगे हैं। ऐसे में शरीर, मन एवं बुद्धि को चुस्ती देनेवाली बहुगुणी ’भारतीय प्राचीन बलविद्या’ का प्रशिक्षण युवाओं का शारीरिक आरोग्य उत्तम रखता है। इसके अलावा मन एवं बुद्धि को चपलता प्राप्त होने की वजह से वे जिस क्षेत्र में कार्यरत होते हैं उस क्षेत्र में भी उन्हें अच्छा यश प्राप्त हो पाएगा।

वास्तव में ’भारतीय प्राचीन बलविद्या’ का विषय उसके नाम से ही गूढ प्रतीत होता है, जिसका कुतुहल और आकर्षण सदियों से विदेशी जनता को भी महसूस होता आया है। जब तक यह भारतीय प्राचीन बलविद्या हमारे देश में अपनी पूर्णावस्था में थी, उसका हमारे देश में सम्मान किया जाता था तब तक भारत देश भी वैभव की चरमावस्था पर था। स्वाभाविक तौर पर देश के युवा इस प्राचीन बलविद्या का प्रशिक्षण पाते थे इसलिए हमारे देश की ओर तिरछी नजर से देखने की किसी भी दुश्मन की हिम्मत नहीं थी। मगर समय के चलते इस बलविद्या का महत्व घटता गया और धीरे- धीरे वह लुप्तप्राय हो गई, तत्पश्चात भारत विदेशी आक्रमकों की पकड़ में जकड़ा गया।(विदेशी आताताईयों के जाल में जकड़ा गया।)

ये लुप्त हो चुकी भारतीय प्राचीन बलविद्याएं यदि इस तरह से पुनरजीवित हो जाए तो अपना देश पुन: अपना गतवैभव प्राप्त कर लेगा और भारत में पूर्वकालीन सुनहरा युग अवतरित होगा। इसलिए भारतीय प्राचीन बलविद्या के संशोधक-मार्गदर्शक एवं विशेषज्ञ प्रशिक्षक के तौर पर डॉ. अनिरुद्ध धैर्यधर जोशी (अनिरुद्ध बापू) (एम.डी. मेडिसिन) पिछले कई वर्षों से इस प्राचीन बलविद्या का अध्ययन कर रहे थे। एक यशस्वी ’ह्रुमॅटोलॉजिस्ट’ ख्याती प्राप्त डॉ. अनिरुद्धजी ने अपने अनेक वर्षों के अध्ययन से इस भारतीय प्राचीन बलविद्या प्रकार का द्वार सबके लिए खोल दिया।

आज इन लुप्त हो चुकी भारतीय प्राचीन बलविद्या, मुद्गलविद्या एवं सूर्यभेदन विद्याओं के पुनरुत्थान का कार्य डॉ. आनिरुद्धजी ने अपने हाथ लिया है, यह कहना गलत नहीं होगा। पहले स्वयं इन विद्यायों में निपुणता हासिल करने के पश्चात बापूजी ने बल आचार्य एवं विद्यार्थियों को स्वयं सिखाया और उनके संघ बनाए। अब डॉ. अनिरुद्धजी के मार्गदर्शन के अनुसार इस भारतीय प्राचीन बलविद्या का प्रशिक्षण दिया जाता है।

बल विद्या का इतिहास:


प्राचीनकाल में बहुत पहले भारत में ६४ विभिन्न कलाएं और ६५ विभिन्न तरह की विद्याएं अस्तित्व में थीं। हर तरह की कला और विद्या पूर्णता प्राप्त कर चुकी थी। इन सबका अध्ययन करनेवाले प्रत्येक व्यक्ति का सर्वांगीण विकास हो चुका था। ऐसा हर व्यक्ति हमेशा राष्ट्रीय, सामाजिक और पारिवारिक जिम्मेदारियां पूरी करने में यशस्वी हुआ करता था। इस प्रकार के विविध कौशल्यों एवं ज्ञान के वटवृक्ष को एकत्रित रूप में बलविद्या कहा जाता था और उससे मानसिक, शारीरिक और बौद्धिक शक्तियां बढ़ती थीं। इसके साथ ही मन और बुद्धि को एकसाथ कार्य करने की शक्ति भी प्राप्त होती है।

मगर इस प्राचीन भारतीय बलविद्या का इतिहास अच्छी तरह से क्रमानुसार तफसील से लिखने की प्राचीन भारतीयों को काफी हद तक आदत नहीं थी, इसलिए परदेसी यात्रियों के निरीक्षण भारतीय ग्रंथों से अधिक प्राचीन भारत की विस्तृत जानकारी देनेवाले साबित होते हैं। प्राचीन भारतवर्ष भले ही अनेक राज्यों में बंटा हुआ था फिर भी अलग-अलग भाषाएं, आचार-विचार, भौगोलिक परिस्थिति तथा अलग- अलग उपासनामार्ग इन सभी को आत्मसात कर समस्त भारतवर्ष को सांस्कृतिक दृष्टिकोन से, आध्यात्मिक दृष्टिकोन से तथा शिक्षात्मक दृष्टिकोन से एकसंघ बनाए रखने का कार्य भारतीय ऋषियों एवं आचार्यों ने किया।

अगस्त्य, वसिष्ठ, अंगीरस, पराशर, भारद्वाज, शौनक, याज्ञवल्क्य, भृगु एवं विश्वामित्र आदि प्रमुख आचार्यों ने निरंतर यात्राएं करके यह एकात्मता लाई और वेदव्यासजी की परंपरा से इसका जतन किया। भारत में आए हुए ग्रीक वासियों ने भारत की सभी प्रकार की शिक्षाओं की तथा गुरुकुलों की काफी़ प्रशंसा की और भारतीय इनमें निपुण हैं, ऐसा कहा है।

इस प्राचीन मल्लविद्या के बारे में मेगॅस्तनिस ने लिख रखा है, ’मल्लविद्या में भारतीय निपुण हैं। वे बदन पर एक चिपचिपे प्रकार का तेल लगाते हैं, फिर मालिश कराते हैं और स्नान करते हैं। पुरातन काल में धंधा करनेवाले बदन रगड़नेवाले (मालिश करनेवाले) लोग वहां थे, प्राथमिक कसरत, जोरबैठक करके, मुद्गल घुमाते, इच्छा होने पर लाठीबाजी करते, भाला, तलवार आदि(शस्त्र) का अभ्यास करते। प्राचीनकाल में भारत में बड़े-बड़े आश्रम थे। उनमें से कुछ नामचीन मशहूर आश्रम थे – विश्वामित्र आश्रम, अगस्त्याश्रम, जमदग्नि आश्रम, द्रोणाश्रम, भारद्वाज आश्रम, कृपाश्रम, अग्निवेश आश्रम, संदीपनी आश्रम (इसमें भगवान श्रीकृष्ण ने शिक्षा हासिल की) इन प्रमुख आश्रमों के साथ ही बलरामजी की मल्लशाला, २. जरासंध की मल्लशाला।’

स्वयं श्रीपरशुरामजी ने भारत की हर प्रकार की युद्धविद्या, मल्लविद्या, क्रीडाप्रकार एवं उनकी शिक्षापद्धति का देशभ्रमण में निरीक्षण किया और उनमें से स्वयं के आश्रम में हमेशा के गुरुकुल के साथ ही स्वतंत्र ’बलविद्यासंकुल’ का निर्माण किया। इस बलविद्यासंकुल में विभिन्न प्रकार की बलविद्याएं सिखाई जाती थीं। इसकी जानकारी निम्नानुसार है:

त्रिधा बलविद्या: –
भिन्न- भिन्न प्रदेशों में तथा भिन्न- भिन्न आश्रमों में बिखरी हुई बलविद्या श्रीपरशुरामजी ने श्रीदत्तात्रेयजी की आज्ञानुसार गहराई से अध्ययन कर एवं अथक मेहनत से संकलित करके उनसे ’त्रिधा बलविद्या’ संहिता बनाई। इसके तीन प्रमुख विभाग थे।

१) मुद्गल विद्या – आदिमाता महिषासुरमर्दिनी के हाथ का दंड उसीके ’रक्तदंतिका’ अवतार के हाथों की तथा ’महासरस्वती’ अवतार के हाथों के मुसल जैसे शस्त्रों के इस्तेमाल के अध्ययन में से श्रीपरशुरामजी ने मुद्गलविद्या सुघटित की।

तब तक दंड, कालदंड, मुसल, हेकट, ओंडा इन विभिन्न स्वरूपों में भारत के विभिन्न प्रदेशों में मुद्गल प्रचलित थी। उसकी आज की आकृति एवं उसके उपयोग के मुद्गलविद्याशास्त्र श्रीपरशुरामजी ने योगपरमेश्वरी रक्तदंतिका के आशीर्वाद से संपन्न किए। श्री हनुमानजी भी मुद्गल के विभिन्न स्वरूपों के विशेषज्ञ थे।

‘Defence is Defeat, Attack is Best Defence’. बचाव करके संभलना और बाद में प्रतिहमला (प्रत्याघात करना) यह मार्ग मुद्गलशास्त्र को मान्य नहीं है। बचाव एवं आक्रमण एकसाथ तथा एक ही कृति से साध्य किए जाएं, यह मुद्गलशास्त्र का मूलतत्व है। कुछ भागों में मुद्गल धीरशास्त्र कंठमुसल तथा अस्थिदंड के नामों से भी जाना जाता है।

श्रीपरशुरामजी के इस मुद्गलविद्या में केवल शारीरिक मारपीट तंत्र नहीं है, बल्कि, इस विद्या के अभ्यास में अपने-आप एकाग्रता, निरीक्षणशक्ति, विरोधीबल पहचानने का अंदाज, अचूक निर्णयक्षमता एवं सहज सतर्कता इन गुणों का जतन होता रहता है। श्रीपरशुरामजी ने मुद्गल के सभी प्रकारों की ऐसी ही योजना बनाई है।

२) वज्रमुष्टी – ’वज्र’ शब्द की पहचान प्रत्येक भारतीय को होती है। देवों के राजा इंद्र ने दधिची ऋषि की अस्थियों में से यह अस्त्र बनाया एवं वृत्रासुर जैसे अवध्य माने जानेवाले भयानक ताकतवाले दैत्य का वध किया। वज्रमुष्टी में केवल मुठ्ठी एवं हाथ मजबूत करने पर ही ध्यान न देते हुए शरीर के हर एक हिस्से में सामर्थ्य, शक्ति, हिम्मत, डटे रहने की क्षमता, मजबूती एवं ताकत की वृद्धि करने पर ध्यान दिया जाता है। वज्रमुष्टी में विशेषज्ञ मनुष्य कितना भी दुबला दिखाई दे, फिर भी उसके द्वारा हलके से किया गया प्रहार किसी मल्ल को भी आसानी से धूल चटा सकता है।

३) सूर्यभेदन विद्या – सूर्यभेदन विद्या के १२ अंगों में से मंत्रोच्चारसमेत किया गया नमस्कार प्रथम अंग है और मूलाधारचक्र पूरी तरह से शुद्ध करने से लेकर वह पुन: कभी भी अशुद्ध नहीं होगा ऐसा ’मूलाधार’ प्राप्त करना १२वां अंग है। सूर्यभेदन विद्या के अभ्यास की वजह से शरीर, मन एवं बुद्धि इन तीन घटकों को एकत्रित तरीके से तथा समानता से समर्थ करके महाप्राण के हाथों में सौंपना यह अभ्युदय की क्रिया आसान होती है तथा उस मानव को सूर्य एवं चंद्रमा दोनों के संतुलित तेज की प्राप्ति होती है।

’एक ओर पुरे विश्व में सर्वत्र हर रोज नए- नए और अधिकाधिक घातक शस्त्र निर्माण हो रहे हैं. इन मिसाईलों तथा परमाणु बमों की तुलना में या देसी हथगोलों की तुलना में प्राचीन त्रिधा बलविद्या कितनी उपयुक्त साबित होगी? कईयों के मन में यह प्रश्न उठ सकता है। परंतु यह त्रिधा बलविद्या इन परमाणु शस्त्रास्त्रों की तरह केवल संहारविद्या नहीं है। यह मनुष्य के किसी भी क्षेत्र के क्षमता का एवं योग्यता का उत्कर्ष करनेवाली विद्या है और इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि, शस्त्रास्त्रों की तुलना में शस्त्र चलानेवाला अधिक महत्वपूर्ण होता है और त्रिधा बलविद्या उत्कृष्टता से शस्त्र इस्तेमाल करनेवाले वीर निर्माण करती है’, ऐसा डॉ. अनिरुद्ध जोशीजी का कहना है। विशेष बात तो यह है कि स्वयं परशुरामजी इस विद्या की रक्षा के लिए अतिवाहिक स्वरूप में होने की वजह से इस विद्या का दुरुपयोग संभव नहीं है। मेरी माता के १८ हाथों का हर एक शस्त्र एवं अस्त्र, उसका स्मरण करके बलविद्या सीखनेवाले विद्यार्थियों की रक्षा के लिए सिद्ध होगा, यह मेरा विश्वास है’, ऐसा भी डॉ. अनिरुद्धजी कहते हैं।

डॉ. अनिरुद्धजी द्वारा दिए गए प्रशिक्षण से और इस प्रशिक्षणवर्ग में सिखाई जानेवाली बलविद्या के प्रकारों पर आधारित बलविद्या के तंत्र, हलचल आदि के अभ्यास को अच्छी तरह से पेश करनेवाली ‘भारतीय प्राचीन बलविद्या’ नामक पुस्तक २४ अक्तूबर २०१२, विजयादशमी के दिन प्रकाशित की गई। विशेषज्ञ मार्गदर्शक द्वारा प्रशिक्षण पाने के पश्चात अभ्यास के लिए इस पुस्तक का आधार लेने से अधिक अचूकता से तथा रफ्तार से प्रगति की जा सकती है। बलविद्या में निपुणता तथा अचूकता पाने के लिए इस पुस्तक में सुस्पष्ट रेखाचित्रों का भी इस्तेमाल किया गया है इसलिए प्रशिक्षणार्थियों को निश्चितरूप से इससे लाभ होगा।

इस देश का युवावर्ग निश्चितरूप से इस पुस्तक से विशेष लाभ उठा पाएगा।

बलविद्या की पुस्तक (टेक्स्टबुक) संकलित की गई है। मात्र यह विषय उसके नाम के कारण कितना भी रहस्यमय प्रतीत होता हो, फिर भी वास्तविकता यही है कि इसमें छिपाये जाने जैसे कोई रहस्य छिपे हुए नहीं हैं, इसलिए इस पुस्तक को (टेक्स्टबुक स्वरूप में) ‘भारतीय प्राचीन बलविद्या’ के अध्ययन के लिए खुला(उपलब्ध) करने का उद्देश्य है। इस टेक्स्टबुक में परिपूर्णता लाने की दृष्टि से, सीधेसादे तंत्र और हलचल का शास्त्रशुद्ध तरीके से अध्ययन करके तथा उनके सही वर्ग बनाकर उन्हें सही ढंग से रचा गया है।

मात्र यह टेक्स्टबुक प्रशिक्षित विशेषज्ञ मार्गदर्शक का विकल्प नहीं हो सकता। इसका इस्तेमाल केवल अभ्यास में कुशलता लाने तक ही सीमित रखा जाए। केवल टेक्स्टबुक पकर ही बलविद्या सीखने की कोशिश न करते हुए, विशेषज्ञ मार्गदर्शक के मार्गदर्शनानुसार ही इस बलविद्या का शास्त्रशुद्ध प्रशिक्षण पाना अत्यंत आवश्यक है; क्योंकि, सदोष तरीके से इस बलविद्या का प्रशिक्षण पाने एवं अभ्यास करने से शारीरिक तकलीफ होने की संभावना बढ़ जाती है।

बापूजी कहते हैं, इस ग्रंथ की रचना में ’मेरा’ कुछ भी नहीं है। यह सबकुछ मेरे पास अनेक स्तरों पर होने वाले अनेक लोगों से आया है और महाप्राण श्री हनुमानजी की प्रेरणा से मुझमें उतारा गया है। महाप्राण हनुमानजी के चरणों में यह ग्रंथ सादर समर्पित है।

ई-शॉप ’आंजनेय’ पर यह बलविद्या की पुस्तक खरीदी जा सकती है