चरखा योजना
इस योजना का पहला कलम था, चरखा योजना। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान चरखे ने इतिहास रचा है। इस चरखे के धागों ने या सूत ने संपूर्ण भारत को एकजुट किया और मजबूती से बांधे रखा था। महात्मा गांधीजी ने इस चरखे का उपयोग ब्रिटीशों के विरोध में शस्त्र की तरह किया। स्वदेशी खादी कपड़ा तैयार करवाने का यह शस्त्र हाथों में लेकर ब्रिटन से आयात होने वाले कपड़ों का बहिष्कार किया। विदेशी माल के विरोध में शुरू हुआ यह काफी़ प्रभावकारी संघर्ष था। क्योंकि ब्रिटीशों के आने से पूर्व अनेकों वर्ष भारत में कपास की फसलें तैयार की जाती थीं और उससे वस्त्र बनाये जाते थे। अनेक घरों में भी चरखे से सूत निकाला जाता था। ब्रिटीशों ने इस वस्त्रोद्योग को ही नष्ट कर दिया था और अपना कच्चा माल कपास ले जा कर उससे कपड़ा बना कर वापस भारत में आयात करने लगे। ब्रिटीशों के विरोध में महात्मा गांधीजी ने स्वदेशी वस्तू निर्माण करके उसका उपयोग दैनिक जीवन में शुरू करवाया और चरखे का एक शस्त्र के रूप में उपयोग कर भारतियों का आत्मसन्मान पुनः प्राप्त करवाया।
३ अक्तूबर २००२ में सद्गुरु श्रीअनिरुद्ध बापू ने तेरह कलमी कार्यक्रम की घोषणा की। अन्न-वस्त्र-आवास ये मानव जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। लेकिन आज भी भारत के करोड़ों नागरिक इससे वंचित हैं। चरखा योजना के अंतर्गत श्रद्धावान स्वयं चरखा खरीदते हैं या संस्था अथवा उपासना केंद्र में स्थित चरखे पर सूत बनाते हैं। इसके लिये लगने वाले पेलू श्रद्धावान स्वयं ही खरीदते हैं। जिन्हें चरखा चलाना संभव नहीं है, ऐसे अनेक श्रद्धावान पेलू व चरखा दान करते हैं इस चरखे से निकाले जाने वाले सूत से कपड़ा तैयार किया जाता है फिर इस कपड़े से स्कू्ली बच्चों के गणवेश सिलवाकर उनका वितरण किया जाता है। श्रद्धावान भी अपने-अपने घरों में सुविधानुसार चरखा चलाकर सूत कातते हैं। उसी प्रकार संस्था व विविध उपासना केंद्रों की तरफ़ से समय-समय चरखा शिविर आयोजित किया जाता है।
सद्गुरु बापू ने इस योजना को जब पहली बार जाहिर किया, तब एक बात बतायी थी कि जो कोई खादी का उपयोग करते हैं, उन्हें मालुम है कि यह कपड़ा फटता नहीं, टिकाऊ होता है, और आज ये हमारे लिए आवश्यक हो गया है साथ ही स्त्रियों एवं विद्यार्थियों की विशेष ज़रूरत बन गया है।
विद्यार्थियों के लिए विद्याग्रहण करना अति आवश्यक है क्योंकि भारत में ऐसा बड़ा समाज है, जो अंधश्रद्धा, जाति – भेद के जाल में फंसा हुआ है, इसी कारण वह समाज विद्या के अभाव में राष्ट्रहित से दूर रहता है। विद्याध्ययन से इन लोगों को महसूस होने लगता है, कि स्वयं के अधिकार क्या हैं, उसी तरह स्वयं के कर्तव्य के प्रति भी उनमें जागरूकता निर्माण होने लगती है। इसी कारण प्रथम कलम का उद्देश्य ही यह है कि सिर्फ मुंबई – महाराष्ट्र तक ही सीमित ना रहकर, संपूर्ण भारत के ग़रीब विद्यार्थियों को विनामूल्य कपड़े प्राप्त हों।
ये कपड़े विनामूल्य अर्थात एक भी पैसा, एक भी रुपया टोकन स्वरुप में न लेकर भारत के सभी जाति अथवा पंथ के विद्यार्थियों को विना मूल्य दिए जाएंगे, यह भीख नहीं होगी बल्कि हमारी ओर से भेंट होगी, हमारे लिए यह जानना ज़रूरी है। भीख या मदत के रुप में हम यदि देते हैं तो कृपा करके चरखा ही मत चलाओ। मैं अकेला ही चलाऊंगा, उससे जितना भी सूत निकलेगा, वह मेरे लिए परिपूर्ण होगा। इस प्रकार बापू ने श्रद्धावानों को स्पष्ट रूप से बताया था।
संस्था के हरेक उपक्रम का आधार अध्यात्म ही है। श्रद्धावान चरखा चलाते हुए बापू द्वारा दिए गए जप लगातार बोलते हैं इसी कारण चरखा चलाते हुए जो शारीरिक श्रम होता है उसका रूपांतर अंत में भक्तिमय सेवा में हो जाता है। ऐसे श्रम द्वारा तैयार किये गये सूत का रूपांतर वस्त्र बनाने के लिए अर्थात वस्त्र में हो जाता है। कष्टालू, जरूरतमंद, निराधार देश बंधुओं को इन वस्त्रों की नितांत आवश्यकता है। श्रद्धावान चरखा चलाकर श्रमदान करते हैं व मुख से नामस्मरण करते हुए यह सेवा परमेश्वर – के चरणों में अर्पण की जाती है।
सन २०१० में श्रीकृष्ण के हाथ नामक शीर्षक से दैनिक प्रत्यक्ष में बापू द्वारा लिखे गए अग्रलेख में चरखा चलाते हुए नाम-जप का अत्यधिक आध्यात्मिक महत्व विशद करते हुए बताया गया है।
हाथ से हैंडल घुमाते समय व नजर सामने रख कर कपास का (पेलूका) सूत बनते हुए उसे देखने से अपने आप ही मन बुद्धि के कक्ष में स्थिर होते रहता है क्योंकि कर्मेंद्रियों से (हाथों से) की गई निर्मिती उसी नाजूकता के साथ दृष्टि के माध्यम से ज्ञानेंद्रियां बुद्धि को लगातार प्रेरित करते रहती हैं व मन की निर्मिति क्षमता बढ़ाती रहती हैं। इसी समय यदि मुख से भगवान का नामस्मरण चलता रहेगा तो मन का रूपांतरण चित्त में होना अधिक वेग से होने लगता है और यह चित्त ही मनुष्य के प्रारब्ध नाश के लिए आवश्यक होता है। इस प्रकार बापू ने कहा है।
हर साल चरखे से काते गये सूत द्वारा ४५ ते ५० हजार मीटर कपड़ा तैयार किया जाता है। इसके बाद उससे भिन्न -भिन्न नाप के गणवेश सिलवाकर तैयार किए जाते हैं। इसका खर्च संस्था उठाती है। अभी तक इस योजना के तहत ४,६७,४५८ मीटर इतना कपड़ा बनाकर १,०८,१२८ इतने गणवेशों का वितरण किया गया है।
कोई भी उपक्रम शुरू करने से पूर्व संस्था उस विभाग का पूर्ण सर्वेक्षण करने के बाद ही वहां के रहिवासियों की आवश्यकतानुसार कार्यक्रम आयोजित करने का निश्चय करती है। इस प्रकार सर्वेक्षण में पाया गया है कि दुर्गम भागों की पाठशालाओं में विद्यार्थियों की उपस्थिती अधिक नहीं होती। जहां अन्न-वस्त्र की समस्या मुंहखोले खड़ी हो वहां स्वाभाविक ही शिक्षा की तरफ़ ध्यान देना मुश्किल हो सकता है। आज संस्था की ओर से कोल्हापूर के आस- पास आर्थिक दृष्टि से पिछड़े भागों में वर्ष २००४ से वैद्यकीय व आरोग्य शिविर का आयोजन हरवर्ष किया जाता है। वहां भी आसपास के गांव खेडों की पाठशालाओं से आने वाले इन विद्यार्थियों को गणवेश का वितरण किया जाता है। चरखा योजना के माध्यम से वस्त्र की समस्या दूर करने का यह छोटा सा प्रयास। इसी तरह के प्रयत्न भारत में व्यापक प्रमाण में हों तो हमारे देश में वस्त्र की मूलभूत सुविधाओं से कोई भी वंचित नहीं रहेगा।