अपने ही पचासवें सालगिरह के अवसर पर प्रकाशित होनेवाले दैनिक के विशेष संस्करण का अग्रलेख और वह भी खुद पर ही लिखनेवाला संभवत: मैं एकमात्र कार्यकारी संपादक हूँ। मेरी माई मेरे बचपन से ही हमेशा कहती थी, “यह न क्या करेगा इसका कभी पता नहीं चलता”, तो मेरी माँ मुझे ‘चक्रमादित्य चमत्कार’ कहा करती थी। संभवत: मेरे बचपन के इस चक्रमपन का ही विकास हमेशा होता रहा है। हर किसी को स्कूली शिक्षा के बाद भले ही कोई भी पहाड़ा याद न आता हो फिर भी ‘मैं, मैं’ का पहाड़ा आसानी से याद रहता है क्योंकि यह ’मैं’ दसों दिशाओं में मन के घोडे पर सवार होकर जब चाहें, जैसे चाहें दौड़ा सकते हैं। मैं ऐसा हूँ और मैं वैसा हूँ, मैं ऐसा नहीं हूँ और मैं वैसा नहीं हूँ, मुझे यह चाहिए और मुझे वह नहीं चाहिए, मैंने यह किया और मैंने वह किया। ऐसे अनेक रूपों में यह प्रत्येक का ’मैं’ जीवनभर होहल्ला करता रहता है और यह अनिरुद्ध तो छोटे बच्चों के ’धांगडधिंगा’ शिविर का अच्छा खासा समर्थक है। फिर इस अनिरुद्ध का ‘मैं’ कैसे शांत बैठेगा?
मैं ऐसा हूँ और मैं वैसा हूँ
मैं कैसा हूँ यह केवल मैं ही जानता हूँ, मगर मैं कैसा नहीं हूँ यह तो मैं बिलकुल नहीं जानता। मैं कैसा हूँ? वह मेरे भिन्न भिन्न स्थिति के अस्तित्ववाले उस मानव पर निर्भर होता है, भिन्न भिन्न परिस्थिति पर भी निर्भर नहीं है। बगल का मानव और परिस्थिति चाहे किसी भी प्रकार की हो, पर मैं वैसा ही होता हूँ क्योंकि मैं सदैव वर्तमान में ही रहता हूँ और वास्तव का भान कभी खोने नहीं देता। भूतकाल का अहसास एवं स्मृति वर्तमानकाल की अधिकाधिक सभानता जितनी ही और भविष्यकाल का अंदाज वर्तमान में सावधानता जितना ही, यह मेरा स्वभाव है।
मैं अच्छा हूँ या बुरा
यह निश्चित करने का अधिकार मैंने प्रसन्नता से सारे विश्व को दे रखा है क्योंकि खास बात तो यह है कि, अन्य लोग मेरे बारे में क्या सोचते हैं इसकी मुझे जरा भी फिक्र नहीं होती। केवल मेरे दत्तगुरु औरे मेरी गायत्रीमाता को जो पसंद होगा वैसे मुझे रहना है, यही मेरे जीवन का एकमात्र ध्येय है और उन्हीं के वात्सल्य की वजह से मैं उनकी पसंद के अनुसार बनता गया हूँ।
मैं कोई ऐसा नहीं हूँ और मैं कोई वैसा नहीं हूँ
मैं कैसा नहीं हूँ, कहां पर नहीं हूँ और कब नहीं हूँ यह मुझे वास्तव में पता नहीं है, मगर मैं किसमें नहीं हूँ यह मुझे अच्छी तरह से पता है और यही मेरी प्रत्येक यात्रा का प्रकाश है।
मुझे यह चाहिए और मुझे वह नहीं चाहिए
मुझे भक्तनीति चाहिए, राजनीति नहीं चाहिए, मुझे सेवा करनी है मगर कोई भी पद नहीं चाहिए, मुझे मित्रों के प्रेम का सिंहासन चाहिए सत्ता नहीं चाहिए, मुझे अहिंसा चाहिए दुर्बलता नहीं, मुझे सर्वसमर्थता चाहिए शोषण नहीं, बल चाहिए हिंसा नहीं, परमेश्वर के प्रत्येक भक्त की दास्यता मैं स्वीकारुँ यही चाहता हूँ, वहीं दांभिक ढोंगबाजी और निरर्थक श्रद्धाओं की नायकता मुझे नहीं चाहिए।
मैं किसी से मिलने नहीं जाता इसलिए कईयों को मुझ पर गुस्सा आता है परंतु मुझे किसीसे न कुछ लेना है और ना ही किसी को भी कुछ देना है, तब किसी से मिलने का सवाल ही कहां पैदा होता है? मैं मिलता हूँ केवल मेरे मित्रों से क्योंकि ‘आप्तसंबंध’ अर्थात लेन-देन के बगैर का अपनापन यही एकमात्र मुझसे मिलने का कारण होता है, इसलिए मुझे ब्याज रहित मेलजोल चाहिए, लेन-देन या विचारमंथनों का मेलजोल नहीं चाहिए होती है।
मुझे ज्ञान नहीं चाहिए अर्थात ज्ञान के खोखले शब्द एवं दिखावे नहीं चाहिएं मगर मुझे परिश्रमपूर्वक ज्ञान के रचनात्मक कार्य के लिए किया जानेवाला नि:स्वार्थ विनियोग चाहिए होता है।
मैंने यह किया और मैंने वह किया – ‘मैं कुछ भी नहीं करता, ना-मी सबकुछ करता रहता है’ यह मेरी अंतिम श्रद्धा है।
तो क्या यह मेरा ‘मैं’ शांत अर्थात निष्क्रिय है? ऐसा तो कतई नहीं हैं। इस अनिरुद्ध का ‘मैं’ उस ‘ना-मी’ के प्रत्येक श्रद्धावान के जीवनप्रवाह को देखता रहता है और उस प्रवाह की गति एवं पात्र सूखे नहीं, इसकी सावधानी बरतने के लिए उस ‘ना-मी’ का स्रोत उसीके प्रेम से श्रद्धावान के जीवननदी को किसी भी बाँध को तोड़कर निरंतर प्रवाहित रखने के लिए प्रयासरत रहता है। मुझे बताइए, इसमें मेरा क्या है?
सत्य, प्रेम और आनंद इन तीन बुनियादी गुणों का मैं असीम चहिता हूं और इसीलिए असत्य, द्वेष और दु:ख का विरोध यह मेरा कुदरती गुण है; इसका मतलब यह है कि, यह कार्य भी अपनेआप ही होता रहता है क्योंकि, जो स्व-भाव है वह अपनेआप ही कार्य करता रहता है, उसके लिए जानबूझकर कुछ भी करना नहीं पड़ता।
प्रभु रामचंद्रजी का मर्यादायोग, भगवान श्रीकृष्णजी का निष्काम कर्मयोग और श्रीसाईनाथजी का मर्यादाधिष्ठित भक्तियोग यह मेरे आदर्श हैं। मैं स्थितप्रज्ञ नहीं हूँ, मैं प्रेमप्रज्ञ नहीं हूँ। मैं ‘वास्तव’ से बंधा हुआ हूँ अर्थात स्थूल सत्य से नहीं बल्कि, जिससे पावित्र्य उत्पन्न होता है ऐसे बुनियादी सत्य से है।
मुझे क्या करना है? मैं क्या करुंगा? मैं अग्रलेख क्यों लिख रहा हूँ? तीसरे महायुद्ध के बारे में मैं इतना क्यों लिखता हूँ? मैं प्रवचन क्यों करता हूँ? इसका उत्तर मेरी हृदयक्रिया कैसे चलती है और मैं कैसे सांस लेता हूँ उतना ही आसान है। वास्तव में यही उत्तर है।
मेरे मित्रों, पवित्रता और प्रेम इन दो सिक्कों में के लिए से मैं बिक जाता हूँ, अन्य कोई भी चलन मुझे खरीद नहीं सकेगा। वास्तव में इस अनिरुद्ध का ’मैं’ केवल आपका है, वह मेरा कभी भी नहीं था और कभी भी नहीं होगा।