श्रीवर्धमान व्रताधिराज
वर्धमान व्रताधिराज का महत्व समझाते हुए सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने कहा है कि, ’वास्तव में वर्धमान शब्द का अर्थ क्या है? बढ़ता रहनेवाला और बढ़ता जानेवाला। वर्धमान शब्द में ये दोनों ही बातें अंतर्निहित होती हैं। वर्धमान व्रताधिराज के आधार पर भौतिक, मानसिक और प्राणांतिक स्तर पर अर्थात स्थूल, सूक्ष्म और तरल तीनों स्तरों पर जो अनेक केंद्र, अनेक बातें सुप्तावस्था में होती हैं उन सभी को जागृत किया जाता है।’ २४ दिसम्बर २००९ के दिन सद्गुरु श्रीअनिरुद्धजी (बापूजी) ने ‘वर्धमान व्रताधिराज’ की कथा बताकर, इस व्रताधिराज का महत्व रेखांकित करके, यह व्रत श्रद्धावानों के लिए मुक्त किया।
श्री वर्धमान व्रताधिराज यानी मानव जन्म पाकर यह जन्म व्यर्थ न जाने की पुष्टि। श्री वर्धमान व्रताधिराज यानी परमेश्वर के नौं अंकुर ऐश्वर्य प्राप्त करने का राजमार्ग। श्री वर्धमान व्रताधिराज यानी सारे व्रतों का शिरोमणि। वर्धमान व्रताधिराज यानी सर्वसाधारण मानवों से संतों तक, अशिक्षित से उच्चशिक्षित तक, महापापी से पुण्यवान तक प्रत्येक को समानरूप से भगवत कृपा प्राप्त करवाने का आधार एवं दु:खमय प्रारब्ध का नाश करानेवाला सर्वोच्च व्रत।
सद्गुरु बापूजी ने व्रताधिराज की उत्पत्ति की कथा बताकर इसका महात्म्य समझाया। बापूजी के मानवी सद्गुरु श्रीविद्यामकरंद गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी, दत्तगुरुजी के चिंतन में एवं श्रीविठ्ठलजी की भक्ति में सदैव रममाण रहते थे। एक दिन श्रीविद्यामकरंद गोपीनाथशास्त्री पाध्येजी ‘बुडती हे जन पाहवे ना डोळा । म्हणून कळवळा येतो त्यांचा॥ इस अत्यंत श्रेष्ठ अभंग का निरुपण कर रहे थे। वह कार्तिकी एकादशी का दिन था। कुछ चुनिंदा लोगों के साथ गोपीनाथशास्त्रीजी निंब गांव गए थे। निरुपण एवं कीर्तन संपन्न हो गया परंतु श्रीगोपीनाथशास्त्रीजी के मन में इन शब्दों से करुणा के भावतरंग प्रवाहित होने लगे।
वे श्रीविठ्ठलजी से प्रार्थना करने लगे, ’हे विठ्ठल, हे भगवंत इन दीनबंधु संतों के दया-भाव को मद्देनजर रखते हुए हम कलयुगवासी मानवों पर कृपा करके, आनेवाले दौर में कली के दु:खदायक प्रभाव से अपनी रक्षा का सरल मार्ग बताओ। हम साधारण मानव जैसी-तैसी भक्ति करने का प्रयास करते हैं, मगर प्रपंच के बोझतले दबा साधारण मानव भक्ति भी अच्छी तरह से नहीं कर पाता।
श्रीगोपीनाथशास्त्रीजी ने सारी रात इस प्रार्थना में ही बिता दी। उन्होंने अपनी विठ्ठलजी की मूर्ति को आलिंगन देते हुए अपने चहिते स्थान पर अर्थात पांजरा नदी के तट पर ९ दिनों तक अन्न-जल ग्रहण किए बगैर धरना दिया। वहीं से श्रीवर्धमान व्रताधिराज समस्त मानववंश के परमसुख का एवं कल्याण का मार्ग उन्हें मिला। श्रीगोपीनाथशास्त्रीजी ने सहस्त्र पूर्णिमा तक अखंडरूप से वर्धमान जप अपने वंश में जारी रखा ताकि यह श्रीवर्धमान व्रताधिराज सारे मानव वंश के लिए सुलभ हो।
जीवन में श्रीवर्धमान व्रताधिराज का कम से कम २४ बार पालन करनेवाला या अठारह वर्ष की आयुसे मृत्यु तक की आयुकी संख्या से आधी संख्या के बराबर पालन करनेवाला व्यक्ति जीवनभर अधिकाधिक पुण्यवान, सुखी होता ही है तथा उसे शांति एवं तृप्ति सदैव प्राप्त होती हैं। संपूर्ण जीवन में कम से कम ९ बार या जीवन की आयुकी संख्या के एक चौथाई संख्या के बराबर व्रतपालन करनेवाले व्यक्ति के पंचमहापापों का निरसन होता है।
जिस व्यक्ति ने संपूर्ण जीवन में कम से कम एक बार भी यदि दिल से व्रताधिराज का पालन किया हो, उसके मार्ग से दु:खद घटनाओं का दु:ख कम हो जाता है। एक से अधिक जितनी भी बार इस सांवत्सरिक व्रताधिराज का पालन किया जाए उतने प्रमाण में मनुष्य भूलोक में अधिकाधिक सुखप्राप्ति एवं दु:खनिवृत्ति प्राप्त करता है।
मार्गशीर्ष महीने में दत्तजयंती से आरम्भ होनेवाला यह व्रत कैसे किया जाए इसके बारे में श्रीवर्धमान व्रताधिराज पुस्तिका उपलब्ध है। इस पुस्तिका में व्रत की विधि की संपूर्ण जानकारी दी गई है। इस व्रत के कुल ९ अंग निम्नलिखित हैं:
१. व्रतकाल एवं पठण
२. वर्ज्य प्रकरण
३. तिलस्नानम्
४. त्रिपुरारी त्रिविक्रम मंगलम्
५. त्रिदोष धूपशिखा
६. त्रिपुरारी त्रिविक्रम भोग
७. इच्छा दान
८. पुरुषार्थ दर्शन
९. उद्यापनम्
इनमें से प्रत्येक अंग का पालन कैसे किया जाए इसकी विस्तृत जानकारी ’वर्धमान व्रताधिराज’ नामक पुस्तिका में दी गई है।
मार्गशीर्ष पूर्णिमा अर्थात दत्तजयंती के पावन दिन से आरम्भ होनेवाला यह व्रत आधुनिक नववर्ष के प्रथम दिन को अपनी कोख में समा लेता है और अपनेआप ही नए साल के लिए शुभ स्पंदनों का लाभ होता है तथा भगवान का आशीर्वाद प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धावानों का विश्वास है।