श्री ललिता पंचमी
आश्विन शुद्ध पंचमी ही श्रीललिता पंचमी है। सद्गुरु श्री अनिरुद्ध लिखित ‘मातृवात्सल्यविंदानम्’ ग्रंथ के २७वें अध्याय में एक कथा आती है। रावण का वध करना ही राम-अवतार का कार्य था। यह कार्य पूर्ण होने के आडे आनेवाले दुर्गम का वध करने के लिए साक्षात माता महिषासुरमर्दिनी रामसेना में प्रकट होती हैं। माता ने अपने परशु से काकरूपी असुर का अर्थात दुर्गम का वध जिस दिन किया वह दिन था अश्विन शुद्ध पंचमी। इस काकासुर का अर्थात दैत्यराज दुर्गम का वध होते ही अपनी इस लीला का समाचार सुनाने तथा राम-रावण युद्ध का आगे का समाचार जानकी को समय-समय पर सुनाने के लिए अपनी लाडली कन्या आह्लादिनी को ‘लीलाग्राही’ अर्थात ‘ललिता’ रूप में बुलाया। भक्तमाता ललिता अपना कार्य आरम्भ करते ही महिषासुरमर्दिनी अंतर्धान हो गईं।
ललिता पंचमी का महात्म्य सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी ने निम्नानुसार बताया है,
हम हमेशा विस्मृति के राज्य में जीते हैं। परमेश्वर की विस्मृति में रहते हैं। जैसे माया आपको नचाती है, वैसे ही वह हमें परमेश्वर के मोह में भी डालती है। हमारे जीवन में हमेशा स्मृति जगाती रहती है, इसीलिए हम ललिता पंचमी के दिन जानकी माता से प्रार्थना करते हैं, ‘हे माते तुम सारे विश्व की तारिणीमाता हो, तुम इच्छापूर्तिवर्धिनी हो, तुम मुझे थोडीसी तो स्मृति दो, तुम से प्राप्त स्मृति को मैं जीवन में अच्छे कार्यों के लिए इस्तेमाल करूँगा। अर्थात जानकीमाता-सिता मूल भाव में परमेश्वर की स्मृती है। इसीलिए ललिता पंचमी के दिन परमेश्वर की स्मृति की उपासना करते हैं।
सन १९९९ से गुरूकुल, जुईनगर में श्री अनिरुद्ध उपासना फाऊंडेशन द्वारा ललिता पंचमी का उत्सव सद्गुरु श्री अनिरुद्धजी के मार्गदर्शनानुसार मनाया जाता रहा है। ललिता पंचमी का यह उत्सव सुबह आठ बजे से रात के आठ बजे तक मनाया जाता है। आदिमाता महिषासुरमर्दिनी का उसके मूल स्थान यानी मणिद्वीप स्थित मूल रूप ललिताम्बिका स्वरूप है। इस उत्सव में श्रद्धावान दम्पति द्वारा श्री ललिताम्बिका पूजन गुरुकुल, जुईनगर में कराया जाता है। अनेक श्रद्धावान इस उत्सव में भक्तिभाव से शामिल होते हैं।